• 09 Jul, 2024

सनातन धर्म का विनाश?

सनातन धर्म का विनाश?

"जब सनातन धर्म क्षीण होता है तब राष्ट्र भी क्षीण होता है। और यदि सनातन धर्म का विनाश कभी संभव हो तो इस राष्ट्र का भी उस सनातन धर्म के संग ही समापन हो जाएगा।" श्री अरविंद

 

सनातन धर्म का विनाश? सच में? उन योग्य व्यक्तियों की उच्च- ध्वनि वाली राजनीतिक भाषणकला से परे, जो ऐसे बयान देते हैं और इनका समर्थन करते हैं, यह व्यवहार, सबसे अधिक, उस भयावह और आक्रामक विरोध के स्वरूप को प्रकट करता है, जिसका हमें आने वाले महीनों में सामना करना होगा। धर्म पर इस प्रकार के आक्रमणों का तर्क- वितर्क से विरोध करना, एक जानवर के सामने गुर्राने के समान पूर्णतः व्यर्थ और असम्मानजनक होगा। 

हम जो धर्म की रक्षा करना चाहते हैं, केवल इस ढंग से इस प्रकार के घातक आक्रमण का विरोध कर सकते हैं कृपया यह भूलें, यह जो श्री स्टालिन जूनियर ने' सनातन विनाश सम्मेलन' के अन्य गणमान्य व्यक्तियों के साथ अंततः व्यक्त किया है, वह केवल शुरुआत है, एक अच्छी तरह से विचार किए गए अभियान की, जो सनातन धर्म के सभी मूल्यों के विरुद्ध असत्य और अधर्म का प्रसार करेगा हमें इन झूठों और विकृतियों का विरोध सत्यों के माध्यम से करना होगा। और यह मायने नहीं रखता कि जो लोग ऐसी विकृतियों का उद्घोष करते हैं, उन्हें सत्य में कोई रुचि नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि हम तथ्यों को निष्पक्ष रूप से व्यक्त करें। जैसा कि अरविंद नीलकंदन ने लिखा है, “ जिन्हें सनातन धर्म का ज्ञान है, उनके लिए एक व्यापक प्रतिक्रिया शुरू करने का समय गया है, सनातन मूल्यों को धारण करने वाले हिंदू संगठन के साथ।

एक क्षण के लिए इस पर विचार करें कि वास्तव में श्री स्टालिन जूनियर ने क्या कहा-" क्या है सनातन? सनातन का मतलब है कि कुछ भी बदला नहीं जा सकता और सब कुछ स्थायी है। लेकिन द्रविड़ विचारधारा परिवर्तन और सभी के लिए समानता की मांग करती है।" क्या यह सत्य है? यदि कोई व्यक्ति सनातन धर्म के आधारभूत सिद्धांतों का अध्ययन सतही पूर्वक भी करे, तो उसे स्पष्ट हो जाएगा कि सनातन धर्म केवल सत् को ही नित्य और अपरिवर्तनीय मानता है। सभी बाकी वस्तुएँ अनित्य और परिवर्तनशील हैं। इसलिए, सामाजिक प्रथाएँ चाहे उनका परम मूल्य कुछ भी क्यों हो नित्य नहीं मानी जा सकतीं वे स्पष्ट रूप से परिवर्तन और विकास के अधीन हैं। कोई भी मानव समाज या संस्कृति, कोई भी सामाजिक या सांस्कृतिक मान्यता या मूल्य प्रणाली, स्थिर या अपरिवर्तनीय नहीं हो सकती, उन्हें जीवित रहने और गहरी मानवीय आवश्यकताओं के प्रति प्रासंगिक बने रहने के लिए आवश्यक रूप से विकासशील और गतिशील होना चाहिए। यह बात हमारे धार्मिक ऋषियों ने बार- बार, तीखे शब्दों में कही है। 

जहाँ और जब भी सामाजिक और राजनीतिक तंत्र या मान्यताएँ स्थिर होने या अविकसित होने लगीं, वहाँ व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से विचारक और सुधारक उभरे, यथास्थिति को भंग करने के लिए, उस पर सवाल उठाने, यहाँ तक कि उसे चुनौती देने और उसे तोड़ने के लिए। सनातन धर्म के इतिहास का प्रारंभिक अध्ययन भी इस बात को स्पष्ट कर देगा।

और सामाजिक समानता? हालांकि मनुस्मृति और वेदों की सभी जानबूझकर की गई ग़लत व्याख्याओं और ग़लतफ़हमियों के बावजूद, यह सच्चाई बनी रहती है कि सनातन धर्म निर्विवाद रूप से सबसे समतावादी दर्शन है जिसे मनुष्य ने सदियों से विकसित किया है। सनातन धर्म का पहला सिद्धांत है, एकम सत् अस्तित्व एक है और अद्वैत है। फिर सनातन धर्म में असमानता का सुझाव तक भी कैसे हो सकता है? इसका मतलब यह नहीं है कि हिंदू समाज में असमानता नहीं है। अवश्य है। और यह कहाँ नहीं है? कौन सा धर्म, समाज या व्यवस्था ऐसी है जहाँ असमानता नहीं है? अहंभाव, अहंकार, लालच, असुरक्षा ये सभी हमारी मूल एवं असहाय मानवीय स्थिति के लक्षण हैं और व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हमे अन्यता, विशिष्टतावाद और असमानता की ओर ले जाते हैं। इनका हमारे धर्म या राजनीति से कोई लेना- देना नहीं है। लेकिन इसका यह अर्थ कैसे निकाला जा सकता है कि सनातन धर्म दोषपूर्ण है

यदि हम एक परमाणु बम गिराकर हज़ारों लोगों की जान ले लें, तो क्या इसका अर्थ यह है कि परमाणु भौतिकी दोषपूर्ण है? क्या हम सच में इन दोनों में अंतर नहीं समझ सकते? या फिर कोई गहरा मानसिक आध्यात्मिक रोग है जो हमें विवश करता है ऐसी बेमानी और असत्य बातें करने के लिए?

जैसा कि श्री अन्नामलाई ने कहा: " मुगलों ने सनातन धर्म को समाप्त करने की कोशिश की, लेकिन वे असफल रहे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोशिश की, लेकिन वे भी असफल रहे। 1800 के दशक के अंत में केवल दक्षिण भारत, विशेष रूप से तिरुनेलवेली, कांचीपुरम, चेन्नई के कुछ हिस्सों में आए ईसाई मिशनरियों ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया।  वे इसे समाप्त नहीं कर सके…" 

क्या हमें इस विषय पर और कुछ कहने की आवश्यकता है?

 

अनुवाद: समीर गुगलानी 

 

Partho Sanyal

Writer and poet, Partho is an exponent of integral Vedanta, and is a follower of Sri Aurobindo and the Mother. He writes and speaks on Vedanta, Sanatan Dharma and Sri Aurobindo's integral Yoga.