• 21 Nov, 2024

अग्नि पुरुष

अग्नि पुरुष

श्रद्धाशक्ति तथा भविष्य निर्माण

कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो वर्तमान के अपने अस्तित्व और कर्मों के प्रति सतत असंतुष्टि की अनुभूति करते हैं। ऐसे व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व का बोध आप सरलता से कर सकते हैं। उनके स्वभाव में कौतूहल और गाम्भीर्य ध्यानाकर्षक होता है तथा वर्तमान की स्वीकृत मान्यताओं एवं रूढ़ियों के प्रति एक निर्भीक व विनम्र नकारात्मकता उनके व्यक्तित्व में वास करती है। आप ऐसे व्यक्ति को सरलता से किसी परिभाषा या वर्ग में नहीं बांध सकते। इनसे मित्रता रखना भी एक कठिन कार्य है। यह बार बार आपको उकसायेंगे, आपके दौर्बल्य पर प्रहार करेंगे। असीम विनम्रता भी इनका एक गुण है और इनकी विनम्रता ही इनकी मर्मस्थली भी होती है।

प्राय: यह असंतुष्टि किसी विफलता या विफलता की आशंका से उतपन्न नहीं होती, बल्कि सफलता के कारणस्वरूप जन्म लेती है। जितनी अधिक कुशलता से वह कार्यों को कर पाते हैं, जितनी उनकी कार्यकुशलता को स्वीकृति मिलती है, उतना ही वह विरक्त होते जाते हैं। और यह विरक्ति, प्रेरणास्वरूप उन्हें उच्चतम उच्चता और गहनतम गहनता कि ओर अग्रसर करती है तथा जब तक वह अपनी क्षमता की चरम सीमा तक नहीं पहुँचते, वह एक क्षण भी विश्राम नहीं करते। आपको ऐसे व्यक्ति हर कार्यक्षेत्र में मिल जाएँगे जैसे : खेल, व्यवसाय, कला, समाचार और मनोरंजन एवं धर्मकार्य आदि क्षेत्रों में। मैं इन्हें “अग्नि पुरुष” के नाम से संबोधित करता हूँ।

कई वर्ष पूर्व हिमालय की पर्वत श्रेणियों में मेरी भेंट एक परिपक्व योगी बाबा से हुई थी। उनके कथनानुसार पृथ्वी का अस्तित्व उसके भीतर की आध्यात्मिक ज्योति पर निर्भर है। यह ज्योति जो सूर्य का मूलभूत तत्व है तथा मानव अस्तित्व का भी मूलभूत तत्व है, उन्होंने इस ज्योति को अग्नि के नाम से सम्बोधित किया था। योगी बाबा के अनुसार, इस अग्नि की विहीनता में पृथ्वी एक अतिशीत मृत ग्रह में और सक्रिय जीवन एक शीत रात्रि में परिवर्तित हो जायेगा। समस्त जीवनशक्ति एवं चित्तशक्ति इस ब्रह्मांडीय अग्नि का तेज अंश है, यह अग्नि ही आत्मा के गर्भ में है। उन्होंने अत्यंत गम्भीरता से बताया था कि, “इस सन्तुलन को परिवर्तित करने का समय अब आ गया है। अब या तो तमसपूर्ण अतिशीत मृतरात्रि में पृथ्वी का अंत होगा अथवा पवित्र तेजमय ज्वाला - अग्नि में शाश्वत दिव्य दिवस की उषा फैलेगी।”

“बाबा, इस संतुलन के परिवर्तन का उत्तरदायित्व किसका है?" मैंने भययुक्त निष्कपट भाव से प्रश्न किया था।

“तुम्हारा”, उन्होंने नि:संकोच पर अर्थपूर्ण उत्तर दिया था और बोले, “तुम्हारा और तुम्हारे जैसे उन सब का, जिनमे सत्य के मार्ग पर चलने का साहस है, सत्य का आह्वान करने का पराक्रम है तथा जीवन से एकमात्र उच्चतम सत्य की अपेक्षा करने का साहस एवं धैर्य है।"

“परन्तु हम तो केवल सत्य के साधक हैं बाबा, सत्य के ज्ञानी नहीं। प्राय: हमें तो इसका बोध भी नहीं होता कि हमारे जीवन की अपेक्षा काल्पनिक है या अकल्पित", मेरे मन के पृष्ठ पटल पर अनायास ही यह प्रश्न उभर आया था।

“असत्य”, योगी बाबा ने कहा, “तुम साक्षात अग्निपुरुष हो। तुम्हारे जैसे अग्निपुरुष ही सूर्य को जीवंत रखेंगे। अन्यथा पृथ्वी पर मृत्यु और अंधकार का वास होगा।"

यही अग्नि मानव अस्तित्व के केंद्र में वास करती है। वह मूलशक्ति, जो जीवन को गति व ऊर्जा प्रदान करती है, उसे विकास की ओर अग्रसर करती है, चैतन्यशक्ति का एवं जीवनशक्ति का विकास करती है। यह अग्नि ही समस्त जगत की विकास शक्ति है। कई वर्ष और उन वर्षों के कठिन आत्मिक परिश्रम के उपरांत ही मुझे योगीबाबा के शब्दों के अर्थ का बोध होना प्रारम्भ हुआ। पर जिस क्षण यह बोध आरम्भ हुआ, उसी क्षण से मैंने ऐसे अग्निपुरूषों को ढूंढना आरम्भ कर दिया। सर्वप्रथम, मेरे स्वयं के भीतर, और फिर उन सब के भीतर, जिनसे मैं मिलता था।

एक तथ्य तत्काल अतिस्पष्ट हो गया कि ऐसे अग्नि पुरुष दुर्लभ हैं। यह मानो एक भिन्न मानव प्रजाति है, जो कि अल्पसंख्या में है और अतिदुर्लभ है। सम्भवतः उन प्रारम्भिक स्तनधारी प्रजातियों की भाँति जिनसे डायनासॉरों का युग आरम्भ हुआ होगा। विश्व पर अग्निविहीन व्यक्तियों का प्रभुत्व है। यह तेजमयी दीप्तिमान अग्निपुरुष, अज्ञातवास में चले जाते हैं या हमारे इस निराशाजनक अंधकारमय जगत से सन्यास ले लेते हैं। और अपनी अनुपस्थिति से वह, इस विश्व को, अग्निविहीन व्यक्तियों को स्वत: ही सौंप देते हैं। तुच्छ तथा मूर्खतापूर्ण कार्यों में ध्यानमग्न कई पीढ़ियां नष्ट हो जाती हैं, तथा उस अवधि में पृथ्वी की आत्मा का निरंतर पतन और क्षय होता रहता है।

किसी ना किसी व्यक्ति को तो पृथ्वी के पक्ष में तथा आध्यात्मिक सत्य के पक्ष में विचार प्रकट करने ही होंगे। अभी नहीं या कभी नहीं। क्योंकि यदि हम अब भी जागृत नहीं हुए तो हम अपना भविष्य सदा के लिए ध्यानहीन और धर्मभ्रष्ट लोगों के हाथों गँवा देंगे।

यह निर्णायक काल है। यही काल विश्वसंतुलन में परिवर्तन लाएगा। और यह, जैसा कि महाऋषि अरविंद ने लिखा है दिव्यकाल है (The hour of God)। हम मनुष्य - जो कि पृथ्वी की विकासप्रक्रिया के योग्य हैं- हम क्या कर रहे हैं? जो कर्म, परिश्रम और सृजन करने में सक्षम हैं, उन्होंने अपनी आत्माओं को सर्वविदित धन के ईश्वर को भेंट कर दिया है। उनका मूलभूत अस्तित्व ही भौतिक सफलता तथा धन सम्पत्ति की अधिक प्राप्ति पर आधारित है। और वो लोग, जिनमें विचार, अध्ययन, मनन और अध्यापन की योग्यता है, हमारे दार्शनिक तथा बुद्धिजीवी वर्ग, वह आज अपने दर्शन और अध्यापन से हमें प्रेरणा और नेतृत्व देने में असमर्थ हैं। किसी कारणवश, उनके वाक में जागृत करने की शक्ति (अग्नि) नहीं बची है। इसी कारण आज की बाल एवं युवा पीढ़ी स्वयं के और विश्व के भविष्य के प्रति अबोधित रहती है। और जो उनके परिजनों की पीढ़ी है वह या तो अतीत की स्मृति में लुप्त है या अपने निराशावादी दोषदर्षिता के व्यसन में मुग्ध है।

जो चिंतक और विचारक है वह केवल संभाषण करते हैं। उन्होंने संभाषण की कला में दक्षता प्राप्त कर ली है - और ईश्वर का धन्यवाद है कि किसी क्षेत्र में तो दक्षता की प्राप्ति हुई। और जो कर्ता वर्ग है और जो प्रबंधक हैं, वह विश्व के रंगमंच पर केवल एक कार्य की सिद्धि से अगली सिद्धि के बीच अंधगति से भागते रहते है। जो घट रहा है तथा वह स्वयं कहाँ जा रहे है, इसका उन्हें कोई बोध नहीं होता। इन कर्ताओं के पास विचारकों के लिए समय या सहनशीलता का अभाव होता है, और वहीं विचारक जिनकी अस्थियों के मज़्ज़े में भी दोषदर्षिता भरी हुई है, अज्ञानी कर्ता के प्रति अविश्वास का भाव रखते हैं। हमारे समाज का विशालकाय विभाजन यहीं पर है। दार्शनिक अपने विशाल आसन पर विराजमान होकर अपनी प्रतीकात्मक धूम्रनलिका से धूम्रपान करता है, किसी दूरस्थ आदर्श समाज के स्वपनदर्शन करता है। वहीं कर्ता कुढ़ता और अकड़ता है, अपने वैश्विक रंगमंच के क्षणों का सर्वनाश करता है, और लुप्त हो जाता है।

तो प्रश्न यह है - कौन करेगा मार्गदर्शन? या अगर और सटीकता से पूछें तो, वह कौन सा तत्व है जो मार्गदर्शन करने योग्य है? क्या वह बुद्धि है? पर बुद्धि तो अतिभ्रमित है, उसकी अपनी ही विशिष्ट शब्दावली है और तार्किक आँकड़ों से भरी हुई है। यह बुद्धि या तो अत्यंत निराशावादी दोषदर्षिता में लिप्त है अथवा अपने सर्वभक्षी निजी स्वार्थ से प्रेरित हो कर उदासीन है। क्या वह हृदय तत्व है? पर हृदय तो कातर है, एवं दृढ़ता और प्रभावकारी ढंग से क्रिया करने हेतु अति संकोची है। दूसरे शब्दों में कहें तो बुद्धि और हृदय दोनो ही विचल और प्रभावहीन हो गए हैं। अवश्य ही कोई और महाशक्ति होगी।

और वह महाशक्ति क्या है - क्या वह आत्मा है? वह आत्मा जिसे हमारे गुरुओं और ऋषीगणों ने उच्चतम प्राप्ति कहा है? क्या यह आतंरिक बुद्ध, बौद्ध गुरुओं के द्वारा बताई गई अंतर्प्रज्ञा है, जिसे वैदिक ज्ञान की अंतरात्मा भी कहते हैं? आप किस नाम से उसका सम्बोधन करें वह कदाचित महत्वहीन है। महत्वपूर्ण यह है कि आप इस आत्मिक शक्ति में विश्वास करते हैं, आपको यह ज्ञान है कि ऐसी एक शक्ति आपके अंदर भी विद्यमान है‌ चित्तशक्ति की शुद्ध ज्योति के रूप में, एक अपरिवर्तनीय ज्ञानस्रोत के रूप में, और असीम करुणा और प्रेम के रूप में जो सभी परिस्थितियों और संबंधों से पूर्णतः स्वतंत्र है। यह एक अचूक इच्छाशक्ति, धारण सामर्थ्य एवं विवेकशक्ति है जो सहजता से जान लेती है कि क्या उचित है और क्या न्यायशील है। इस शक्ति को प्रतिस्पर्धित या प्रतिरोधी भावनाओं से संघर्षरत होने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

इस धारणा में विश्वास स्थापित करना हमारा अग्रणी एवं महत्वपूर्ण पद होगा। और यह अग्रणी पद अपने आप में इस निराशावाद के भयावह रोग के निवारण का आरम्भ है जिसने वर्तमान की सभी सभ्यताओं और समाजों के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी चपेट में ले लिया है। यह निराशावाद एक शक्तिहीन करने वाली अयोग्यता है, जिसके कारणवश हम किसी भी उचित अथवा श्रेष्ठ वस्तु, विचार या पुरुष पर विश्वास करने में असमर्थ हैं। और यही वह बिंदु है जहाँ आकर सब बिखर जाता है: क्योंकि बिना विश्वासशक्ति के हम कुछ नहीं कर सकते। हम नेतृत्व में प्रेरित और प्रभावित करने में अक्षम हैं। हमारी सामूहिक सामाजिक नपुंसकता का वास्तविक कारण ही यह है - कि हम में विश्वास करने की क्षमता नहीं है। हमारा समाज नास्तिक, निराशावादी और अविश्वासी लोगों का समाज बन गया है। और जीवन के अलङ्घ्य सिद्धांत का अनुसरण करते हुए, हम अंततः अपने निजी और सामूहिक जीवन में वह सब वास्तविकता में ले आते हैं जिसे हमने अपनी अपेक्षाओं में धारण किया था। इसलिए हमें अधम की प्राप्ति होती है क्योंकि हम अधम की निरंतर अपेक्षा करते है। हमें असुर तत्वों की प्राप्ति इसी कारणवश होती है क्योंकि हम, हमारे धार्मिक विचारों के होते हुए भी, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं कर पाते।

इसलिए एक सार्थक नेतृत्व के निर्माण करने हेतु हमें सर्वप्रथम - अपने अंदर, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में और मानवता के भविष्य में - आस्था का, श्रद्धा का, अभिलाषा का और दृढ़ विश्वास का निर्माण एवं स्थापन करना होगा। पर यह उम्मीद और श्रद्धाभाव केवल आशावादी विचारों और स्वयं सम्मोहन पर क़तई आधारित ना हो इसका भी ध्यान रखना होगा। इस श्रद्धा एवं आस्था; आशा एवं आत्मविश्वास की उत्पत्ति, अनिवार्य रूप से, गहन आंतरिक स्रोत से होना अतिआवश्यक है, हमारे गहन एवं सतस्वरूप चित्त से, हमारे अतिविश्वस्त एवं अतिप्रकाशित अंतर्बोध और ज्ञान आदि से प्रकाशित होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें अपने अंदर की आध्यात्मिक श्रद्धा की पुनः प्राप्ति करनी है। और आध्यात्मिक श्रद्धा किसी स्वर्ग में वास करने वाले भगवान के प्रति नहीं, यद्यपि मानवता के गर्भ में वास करने वाली ईश्वरीय शक्ति के प्रति। हमें यह विश्वास जागृत करना है की उच्चता के लिए, सत्यता के लिए और श्रेष्ठता के लिए‌, हम पूरी तरह सक्षम हैं।

हमें इस तथ्य पर अवश्य चिन्तन करना चाहिए की स्वर्ग में वास करने वाले भगवान में विश्वास करना सरल है पर हम सबके अंदर, अनेकों संभावनाओं के रूप में, वास करने वाले ईश्वर में श्रद्धा रखना अति कठिन है। स्वर्गप्रवासी भगवान में आस्था, मानवता में आपके अविश्वास के साथ, सुखद रूप से सहमति में रह सकती है पर मानवता की इन संभावनाओं में आस्था, असाधारण प्रयासों की माँग करती है, जैसे - मानव स्वभाव के संपूर्णज्ञान की प्राप्ति का प्रयास, मानव स्वाभाव के भारी दोषों और मूर्खतापूर्ण कृत्यों को स्वीकार करना और फिर भी आस ना छोड़ना, और बुद्धिहीन निराशावाद अथवा ह्रदयहीन दुःख के प्रति समर्पण को नकार देना, आदि अत्यंत ही कठिन पर संभव प्रयास है।

इस प्रयास के लिए हमें हमारे भविष्य की एक असीम दूरदर्शी कल्पना करनी होगी। और मानव स्वभाव का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना होगा, और मनुष्य की विकास सम्भावनाओं का एक गहन आभास करना होगा। अंततः निराशावाद का यथार्थ क्या है? क्या इसका सरल अर्थ यह नहीं कि हमने अपने अन्तर की गहराई को ढंग से टटोला नहीं है? कि हमें मनुष्य जीवन के यथार्थ महत्व का बोध नहीं है? कि हम केवल जीवन सतह का ज्ञान ले रहे हैं, और अपने वर्तमान के क्षणिक दृश को सम्पूर्ण सत्य मान रहे हैं? यह तो एक कलाकार की अपूर्ण कलाकृति को देखने के पश्चात उसे कुरूप कह कर अस्वीकृत करने जैसा है। केवल इस कारण से की हमें यह बोध नहीं है कि पूर्ण होने के पश्चात वह कलाकृति कैसी दिखेगी। क्या यह उच्च कोटि की अधीरता, या निम्न कोटि की बाल मूर्खता नहीं है?

परंतु इस संघर्षरत भाग में उभरते हुए पूर्ण को ढूंढना, अन्धतम रात्रि में प्रभात की एक झलक देखना अथवा अतक्ष शिला में सिद्ध रूप की झलक देखना, एक संकुचित बीज में पुष्प की कल्पना करना या एक प्रचंड धारा का अनुभव करना अल्पधारा की बूँदभर में, यह विधाएं कल्पनाशक्ति का आह्वान करती हैं तथा श्रद्धा का, अंतर्दृष्टि का, ज्ञान का, धीरता का और नम्रता का आह्वान करती हैं। और अवश्य ही एक नवदृष्टि का, एक नए प्रकार के अवबोधन का आह्वान करती हैं।

और यह नवीन प्रकार का अवबोधन कोई अर्थहीन रहस्मयी प्रक्रिया नहीं है। यह अपने आपको पुनः देखने और समझने की सहज और उपयोगी शैली है। अपने इतिहास के, अपनी सम्भावनाओं के, हमारे गतिशीलता से विकसित होते आध्यात्मिक सत्य के बोध की प्रक्रिया है। यह मनुष्य की गाथा का पुनर्मूल्यांकन करने का एक व्यावहारिक मार्ग है। गहन आकारों और सूक्ष्म भेदों के बोध की विद्या है यह। मैं इसे आत्मिक दृष्टि कहता हूँ। आत्मिक वो नहीं जिसकी चर्चा मंदिरों में होती है, पर वो जिसका अनुभव तात्कालिक है, साक्षात है। मूल दृष्टि : वह दृष्टि जो बुद्धि के पूर्वाग्रहों के और भावनात्मक प्रतिबंधों के आवरण से परे है, सामाजिक व सांस्कृतिक पक्षपातों से, व्यक्तिगत या व्यक्तित्व के अंधबिंदुओं से परे है। शुद्ध दृष्टि: अंतरज्ञान की दृष्टि, बौद्धिक अड़चनों से परे सूक्ष्मता का प्रत्यक्ष ज्ञान है ना कि स्थूलता का आभास है।

जब आप इस प्रकार से देखना प्रारम्भ करते हैं, तो आपका ध्यान स्वयं उन सूक्ष्म भागों पर जाता है जिन्हें आपने पहले कभी ध्यनापूर्वक देखा ही नहीं था। इस अतिविशाल ब्रह्मांडीय पहेली के सब भाग स्वेच्छा से अपने अपने स्थान को ग्रहण करने लगते हैं। गूढ़तम अर्थ, स्वाभाविक और सहज रूप से स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। ज्ञानप्रज्ञा का स्वतः उदय होता है, एक शांत बोध का प्रकाश आपके दिन और रात्रि के घंटो को प्रबुद्ध कर देता है, आपके प्रतिदिन के जीवन का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है, और आप साधारण जीवन में असाधारणता की, सामान्य जीवन में भव्यता की, प्रथम, पर किंचित अनिश्चित झलकियाँ पकड़ना प्रारम्भ कर देते हैं।

इस प्रक्रिया के अनुसरण का क्रम अति सरल है। अपने भीतर की उस सम्भावना में, अंतर्बुद्ध में, अंतर्ज्ञान में, श्रद्धा जागृत करें। अपनी उच्चतम सम्भावना के प्रकाश में, उसके प्रति ध्यानवर्धन करें, और वह स्वयं ही आपके अनुभव में अधिकाधिक चैतन्य एवं साकार होता जाएगा। एक बार जब यह प्रकिया आरम्भ हो जाएगी, फिर निरंतर प्रयास से उसे चेतना पूर्वक अपने नित्यजीवन और नित्यकर्म में और अपने विचारों और भावनाओं में अधिकाधिक धारण करें। यह करना कठिन नहीं है। यथार्थ में यह प्रक्रिया, उन सभी धारणाओं की अपेक्षा, अतिसरल है जिनका हम साधारणतः अनुसरण करते हैं, एवं यह अनंताधिक मुक्ति दायक है।

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Acharya Nirankar

A practitioner and teacher of Vedanta who prefers to write and speak anonymously. A teacher, in the dharmic tradition, is known as 'Acharya'.