गुरु वह है जो स्वयं हमें अज्ञान एवं अवचेतन के अंधकार से सत्य एवं अमरत्व के अंतहीन प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु उसी प्रकार हमारी आत्मा का पोषण करता है जैसे कि हमारी जैविक माता हमारे शरीर का पोषण करती है। गुरु उस पिता के समान है जो हमें अनुशासित करता है, जीवन के गुण-अवगुण की शिक्षा देता है, हमारा दिशा निर्देश करता है; वह मित्र एवं मार्गदर्शक है जो हमारे हर पग के साथ पग मिला कर चलता है, किसी भी पूर्वाग्रह एवं अपेक्षा से रहित। परंतु इस सब से परे, गुरु उस दिव्य ईश्वर का साक्षात स्वरूप एवं जीवंत अवतार है।
सनातन हिंदू धर्म का मूल आधार गुरु है; पुजारी, पंडित या उपदेशक नहीं, शास्त्र भी नहीं। गुरु ही सर्वप्रकाशित ज्ञान का स्रोत है, वह अमोघ संबल है जो कठिन अवरोहण में हमें स्थिरता प्रदान करता है। गुरु वह महाशिला है जिस पर हम सकुशल एवं सुरक्षित रूप से प्रतिष्ठित हो सकते है। गुरु को सनातन हिंदू परम्परा में स्वयं ईश्वर के समान माना गया है - “आचार्य देवो भव:”। आचार्य - जो विद्या देता है तथा हमें नवीन आत्मिक स्वरूप देता है। गुरु को ही आचार्य कह कर भी सम्बोधित किया जाता है।
गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व वार्षिक रूप से उत्तरायण के पश्चात हिंदू पंचांग के प्रथम मास, आषाढ़ की प्रथम पूर्णिमा को मनाया जाता है, यह दिवस आंग्ल तिथि-पत्र के अनुसार प्रायः जून या जुलाई मास में होता है। यह भारत में वर्षा ऋतु के आरंभ का समय होता है। इस अवधि में भारतवर्ष के पारंपरिक परिभ्रामी संन्यासी, निरंतर वर्षा के कारण पूर्णतः विश्राम करते थे तथा अपनी अविरल यात्रा से कुछ समय के लिए विरामित होते थे। इस अवधि में यह संन्यासी प्रायः किसी आश्रम में निवास करते थे और आगामी लगभग तीन मास, आध्यात्मिक विचार-विमर्श, अभ्यास व चिंतन-मनन को समर्पित करते थे। गुरु पूर्णिमा का दिवस एक अतीव शुभ आध्यात्मिक अवधि के आरम्भ का प्रतीकचिन्ह है, यह अवधि गम्भीर स्वाध्याय एवं प्रबल ध्यान साधनों को समर्पित है।
गुरु पूर्णिमा का एक प्रतीकात्मक अर्थ भी है: गुरु पूर्णिमा भारतवर्ष में वर्षा ऋतु के आगमन का लक्षण है, जब उष्ण एवं सूखी धरती वर्षाजल में संपूर्णतः भीग जाती है और भारतीय ग्रीष्म ऋतु की दमनकारी उमस के उपरांत समस्त जीवन पुनः जीवित एवं गतिशील हो उठता है। यह दृश्य शिष्यों के अंतर्भाव को पूर्णतः दर्शाता है, दिव्य कृपा एवं ज्ञान की वर्षा के लिए शिष्यों की अनुकम्पा का भी प्रतीक है गुरु पूर्णिमा।
जैसे कि शिष्य गुरु से प्राथना करता है:
हे गुरुदेव
जिस प्रकार यह निर्जलीकृत धरा वर्षा को ग्रहण कर रही है,
मैं भी, ज्ञान की असीम तृष्णा में, इस सूखी धरती के समान,
आपकी कृपा की विशाल बाढ़ में जलथल हो जाऊँ।
ऐसी मान्यता है की गुरु की कृपा एवं शक्ति का गुरु पूर्णिमा के दिवस सहस्त्र गुना वर्धन होता है। इसका मूल कारण यह है कि युगांतर से अनेक आत्मबुद्ध ऋषियों एवं मनीषियों ने, समस्त मानवता के आध्यात्मिक कल्याण हेतु पृथ्वी के सूक्ष्म वातावरण में असीम उदारता से अपनी शक्ति एवं चैतन्य का प्रवाह किया है। यह सर्वविदित है कि एक आत्मबोधि ऋषि के आशीर्वाद में सम्पूर्ण काल एवं देश में यथार्थी-करण की अमोघ शक्ति है - ऐसी है सत्य की शक्ति। इसी कारण, समस्त सत्यनिष्ठ एवं आत्मनिष्ठ साधक, स्वयं की गुरुआस्था का पुनः नवीनीकरण करने हेतु, पुरुषोत्तम की ओर अवरोहण के संकल्प को पुनर्जीवित करने हेतु, स्वयं को पुनः अर्पित करने हेतु, इस दिवस की प्रतीक्षा करते हैं। एक ऐसा अवरोहण जो की गुरु के सजीव सहयोग के बिना प्राप्त करना प्रायः असम्भव हो जाएगा।
गुरु पूर्णिमा का सनातन हिंदू धर्म के सभी आध्यात्मिक साधकों एवं भक्तों के लिए गहन महत्व है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा एवं शक्ति से परिपूर्ण दिवस है, तथा आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण अवधि का प्रारम्भ है। यह एक ऐसी अवधि है जो कि उन सब के लिए, जो उच्च चेतना के प्रति अल्पमात्र भी जागृत हैं, विकास की एवं नवीनीकरण की असीम आध्यात्मिक सम्भावनाओं का प्रकटन करती है। ऐसी मूल्यवान अवधि व्यर्थ नहीं जानी चाहिए। शिष्यों को केवल अपने आत्मिक केंद्र पर ध्यान करना है, अपने भीतर की अंतर्तम अभीप्सा पर चित्त लगाना है तथा शेष कठिन श्रम पूर्ण निश्चिंतता से गुरु को सौंप देना है।
सनातन हिंदू इतिहास के अनुसार, गुरु पूर्णिमा के दिन, महाभारत के रचयिता, कृष्ण द्वापायन व्यास का शुभजन्म हुआ था, वह ऋषि पराशर एवं मतस्यराज दुश्रज की सुपुत्री, देवी सत्यवती की संतान हैं। श्रीमद् भागवत में यह कथित है की “ईश्वरत्व के सत्रहवें अवतार के रूप में, श्री व्यासदेव सत्यवती के गर्भ में ऋषि पराशर के द्वारा प्रकट हुए। उन्होंने पूर्वकाल में सरल प्रसार हेतु अखंडित वेद का अनेक खंडो एवं उपखंडों में विभाजन किया”। इस कारण से यह दिवस व्यास-पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है। कृष्ण द्वापायन व्यास को सनातन हिंदू परम्परा के आद्यप्रारूपीय या मूलप्रारूपीय गुरु की मान्यता प्राप्त है।
एक और प्रसिद्ध दन्तकथा, जो कि सम्भवतः काल के प्रारम्भ में घटित हुई थी, के अनुसार प्रथम गुरु, गुरुओं के महागुरु, स्वयं शिव, जो दक्षिणमूर्ती नाम से भी प्रसिद्ध हैं, वह जिसका मुख दक्षिण दिशा के ओर है, उन्होंने सर्वोच्च आत्मा की प्रथम विद्या मानवता को प्रदान की थी। इसी कारणवश शिव को आदिगुरु एवं आद्यप्ररूपी गुरु की मान्यता प्राप्त है। प्राचीनकाल में सदियों पूर्व इसी दिवस पर आदियोगी शिव ने गुरु का आवरण ग्रहण किया था। फलतः शिव आदिगुरु हैं, और यौगिक परम्परा के प्रथम गुरु हैं।
यह दन्तकथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है:
प्राचीन काल में, चार प्रबुद्ध पुरुष, अपने अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्नों के गूढ़तम उत्तरों की खोज में, एक स्थान से दूसरे स्थान भ्रमण करते हुए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज रहे थे जो उन्हें ज्ञान का मार्ग दिखा सके। इन मे से प्रथम व्यक्ति अक्षय आनंद एवं दुःख से सदा के लिए मुक्ति के गुप्त ज्ञान की प्राप्ति का इच्छुक था। दूसरा समृद्धि एवं स्वास्थ्य के ज्ञान तथा अभाव एवं असुरक्षा से पूर्ण मुक्ति के गुप्त ज्ञान की प्राप्ति का इच्छुक था। तीसरा बुद्धिमान व्यक्ति जीवन के अर्थ एवं महत्व को जानने का इच्छुक था, क्या मनुष्य जीवन का स्थायी महत्व एवं मूल्य है? चौथा व्यक्ति ज्ञान एवं मनीषा का उपासक था परंतु अपूर्णता का अनुभव करता था क्योंकि उसकी मनीषा में, सर्वोच्च सत्य के भाँति, नवीनीकरण करने का सामर्थ्य नहीं था, जो केवल जीवंत गुरु के माध्यम से ही प्रकट रूप में प्राप्त हो सकता है। उसे इस ज्ञान को प्राप्त करने के मार्ग का बोध नहीं था।
अंततः वह चार अन्वेषक एक दूरस्थ गाँव में स्थित एक पुरातन बरगद के वृक्ष तक पहुँचे। उन्हें वहाँ एक युवा पुरुष मिला जो कि शांति एवं स्थिरता में आसीत था, उसके मुखमंडल पर शुभ मंगलकारी मुस्कान थी। उसके मुखमंडल को देखते हुए, उन सभी के मन में एक साथ यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह युवा हमें सर्वोच्च ज्ञान के गुप्तमार्ग का रहस्य बताएगा। तत्पश्चात् वह उसके समक्ष शांतिपूर्वक बैठ गए, और उसके नेत्र खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।
युग के समान प्रतीत होती कालावधि के पश्चात उस रहस्यमयी युवा पुरुष ने अपने चक्षु खोले, और उन चारों का अवलोकन किया। उसकी मुस्कान अत्यंत दीप्तिमान हो गयी, उसके नेत्रों ने इस प्रकार देखा की जैसे उनके हृदयों की अतिगहनता के सहज ही दर्शन कर रहा हो। परंतु वह पूर्णरूप से मौन रहा, उसने केवल एक असामान्य मुद्रा ग्रहण की। और, जैसे की एक गुप्त संचार से, चारों बुद्धिमान व्यक्तियों को ज्ञान की प्राप्ति हुई, उनको समस्त प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो गए एवं प्रबोधन की प्राप्ति हुई।
प्रथम व्यक्ति को मनुष्य के दुःख के मूल का ज्ञान हो गया; दूसरे व्यक्ति को भय एवं अभाव के मूल का बोध हो गया, तीसरे को मानव अस्तित्व के वास्तविक मूल्य एवं महत्व का ज्ञान हो गया एवं चौथे को सान्निध्य का बोध हुआ; गुरु के साथ गहन आंतरिक संपर्क का ज्ञान हुआ।
यह वास्तव में गुरु से शिष्य को यौगिक ज्ञान का प्रथम संचार था। यह सनातन हिंदू धर्म की गुरु-शिष्य परम्परा का जन्म था। यही परम्परा हमारे सनातन धर्म का मूल आधार है। यह गुरु से शिष्य तक ज्ञान संचार की परम्परा आज तक निरंतर जीवित है। यह संचार कथित या लिखित शब्द के द्वारा, आंतरिक प्रेरणा एवं अंतर्दृष्टि के द्वारा, अथवा मौन के द्वारा प्रवाहित है। यही परम्परा आध्यात्मिक धर्म की रीढ़ है।
आदि शंकराचार्य ने, प्रथम गुरु से प्रथम शिष्यों को प्रथम ज्ञान संचार के प्रतीक चिह्न के रूप में एक सुन्दर काव्य की रचना की है जो इस प्रकार है:
मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं
वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणैः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥१॥
अनुवादित अर्थ यह है :
उस दक्षिणमूर्ती की हम स्तुति एवं अभिवादन करते हैं,
जो सर्वोच्च ब्रह्म के सत्यस्वरूप की व्याख्या करते हैं,
अपने परम मौन के द्वारा,
जो देखने में युवा हैं,
शिष्यों से घिरे हुए, शिष्य जो कि स्वयं पुरातन ऋषि हैं,
जिनकी बुद्धि ब्रह्मस्थित है,
जो की गुरुओं में महागुरु हैं,
जो अपने हस्त से चिनमुद्रा दर्शाते हैं,
जो आनंद का साक्षातरूप हैं
आनंद अंतर्भाव में अभिभूत हैं।
गुरु पूर्णिमा का पर्व बौद्ध एवं जैन परम्परा के अनुयायी भी मनाते हैं। बुद्ध धर्म के अनुयायी इस शुभ दिवस को सारनाथ में बुद्ध के प्रथम उपदेश के सम्मान एवं प्रतीक चिन्ह के रूप में मनाते हैं। अपनी निर्वाण प्राप्ति के पाँच सप्ताह के पश्चात बुद्ध बोधगया से सारनाथ अपने पुराने पाँच साथियों- पंचवर्गिकाओं को ढूँढने गए थे। उन्हें यह पूर्वज्ञान हो गया था की यह पुराने साथी उनसे बौद्धधर्म की दीक्षा लेने के लिए परिपक्व एवं इच्छुक हैं। जब बुद्ध को अपने पुरातन साथी मिल गए तो उन्होंने उनको धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र का ज्ञान दिया। इस ज्ञान संचार से उनके साथी प्रबुद्ध हो गए और सम्भवतः बुद्ध धर्म के प्रथम भिक्षु बने। इस संचारस्वरूप ज्ञान से, आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन बुद्ध के संघ की स्थापना हुई। बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के पश्चात के प्रथम वर्षा ऋतु के काल का सारनाथ में ही निर्वाह किया।
जैन धर्म के अनुयायी गुरुपूर्णिमा का पर्व चौबीसवें तीर्थान्कर महावीर के प्रथम शिष्य, इंद्र्भूति गौतम, को ग्रहण करने के दिवस का पुनः स्मरण करने के लिए मनाते हैं। उस गुरुपूर्णिमा के दिवस के उपरांत महावीर ने गुरु का रूप धारण किया था।
गुप्त महत्व
फिर शिष्य किस प्रकार इस दिवस की शक्ति एवं शुभत्व का उपयोग करता है? साधारण रूप से लोग गुरुपूजन करते हैं। इसका अपना अलग महत्व है। पर गुरुपूजन केवल प्रथम कार्य है। पूजन का आंतरिक जीवंत सम्पर्क एवं आत्मीयता में परिवर्तित होना अत्यंत आवश्यक है - जिसे एक शब्द में सान्निध्य कहते हैं। गुरु के साथ आध्यात्मिक समीपता में होना, गुरु की जीवंत उपस्थिति में होना, गुरु-शिष्य के सम्बंध का सार है। गुरु से शारीरिक दूरस्थता या निकटता महत्वहीन होती है: गुरु के भौतिक शरीर में होना या ना होना भी महत्वहीन है। सान्निध्य काल एवं देश, जन्म और मृत्यु से अतिक्रमित है; जिस गुरु ने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है वह अनश्वर है, शाश्वत है और उतनी ही सरलता से अतिभौतिक लोक में प्रकट हो सकता है जितनी सरलता से वह भौतिक लोक में प्रकट होता है।
परंतु शिष्य को स्वयमेव गुरु के समक्ष आंतरिक एवं पूर्ण रूप से समर्पण करने की प्रक्रिया का बोध होना चाहिए, केवल इसके फलस्वरूप ही गुरु शिष्य की चेतना में व्यक्त हो सकता है। समस्त एवं पूर्ण समर्पण इस गुप्त प्रक्रिया का सर्वोच्च रहस्य है। गुरु का कार्य चित्त का तपस है। गुरु जिस ज्ञान का शब्द या मुद्रा के द्वारा संचार करता है, सान्निध्य की संचार क्षमता का वह अल्पांश मात्र है। गुरु की विद्या का समस्त गांभीर्य, गुरु के मौन के द्वारा प्रवाहित होता है; गुरु के मौन के द्वारा ही सत्य की सर्वशक्ति एवं सर्वशुद्धता का संचार होता है। फलतः शिष्य को अपनी बुद्धि एवं हृदय को गुरु के मौन को ग्रहण करने के लिए तैयार करना चाहिए। और यह तभी श्रेष्ठता पूर्वक कार्यान्वित हो सकता है जब शिष्य स्वयं गहन ग्रहणशीलता एवं शांतभाव में स्थित हो।
अतः गुरुपूर्णिमा अंतर्मौन को ग्रहण करने का दिवस है तथा आह्वान, सम्पूर्ण समर्पण एवं ध्यान करने की तिथि है। ध्यान के फलस्वरूप शिष्य के अंदर तपस-तेज उत्पन्न होता है। वह तप शक्ति, जिसके बिना गुरु के प्रकाश अथवा शक्ति के किसी भी अंश को ग्रहण या आत्मसात् नहीं किया जा सकता। हमें स्मरण रखना चाहिए कि वास्तविकता में संचार केवल आध्यात्मिक शक्ति का होता है, मानसिक ज्ञान या समझ का नहीं। मानसिक ज्ञान एवं समझ बोधित कर सकता है परंतु आध्यात्मिक शक्ति पूर्ण नवीनीकरण करती है, पुराने स्वभाव एवं शरीर को दिव्य स्वर्णरूप में परिणत करती है।
समर्पण, ध्यान के समान ही महत्वपूर्ण है। समर्पण स्वयं को पूर्णतः गुरु के चरणो में अर्पित करने की क्रिया है, और स्वयं का समर्पण करने के फलस्वरूप, अपने को गुरु की कृपा एवं शक्ति के योग्य बनाने की प्रक्रिया। समर्पण का वास्तविक अर्थ है - पवित्र बनाना, बुद्धि, हृदय एवं शरीर में ईश्वर को ग्रहण करने के लिए स्वयं को तैयार करना। क्योंकि गुरु या ईश्वर केवल तभी प्रकट होंगे जब पात्र शुद्ध एवं पूर्ण होगा।
जब समर्पण हो जाता है तथा ध्यान की दृढ़ता से स्थापना हो जाती है, उसके बाद शिष्य आह्वान के लिए तैयार हो जाता है। गुरु की आध्यात्मिक शक्ति का आह्वान एवं उसे अपनी अंतरात्मा में धारण करने के लिए शिष्य परिपक्व हो जाता है। यह आह्वान है गुरु के व्यक्त होने का, पूर्ण नियंत्रण करने का, अंतर्गुरु बनने का, स्वयं के सम्पूर्ण अस्तित्व का ईश्वर बनने का, अंतर् ईश्वरत्व, अन्तर्दिव्यता प्रदान करने का।
पांडिचेर्री आश्रम की श्री माँ ने हमें इस प्रकार के आह्वान के लिए अति उत्तम मंत्र दिया है : ॐ नमो भगवते … हे ईश्वर, आओ, स्वयं को प्रकट करो, मुझे दिव्यरूप में परिवर्तित कर दो।स्वयं श्री माँ के शब्दों में: प्रथम शब्द, ॐ, का अर्थ है सर्वोच्च आह्वान, सर्वोच्च का आह्वान। द्वितीय शब्द, नमो, का अर्थ है स्वयं का पूर्ण समर्पण। तृतीय शब्द, भगवते, का अर्थ है अभीप्सा, उस दिव्यतत्व की जिसमें सृष्टि को परिवर्तित होना है।
यह आत्मा का परमात्मा के लिए नित्य निरंतर आह्वान है, शिष्य का दिव्य आत्मा के लिए आह्वान है। गुरु, मानव तथा ईश्वर के बीच का माध्यम है, आत्मा और परमात्मा के बीच, नश्वर और शाश्वत के बीच का सेतु है। शिष्य को यह स्मरण होना चाहिए कि गुरु और ईश्वर के बीच कोई अन्तर नहीं है। गुरु मध्यभूमि पर, दृश्य और अदृश्य के बीच खड़ा होता है, अव्यक्त और व्यक्त के बीच रहता है, आत्मबोध के उच्चतम शिखर तथा हमारी मानव अभीप्सा का आधार शिविर, हमारी साधना बीच।
गुरु के बिना, हमारा अवरोहण अत्यंत कठिन होगा और कई वर्षों की साधना के पश्चात प्राप्य होगा; परंतु गुरु के साथ हम सीधा उड़ान भर सकते है, और कुछ वर्षों के अंदर सकल जीवनकाल की साधाना को संकुचित कर सकते है। ऐसी होती है गुरु कि शक्ति।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
गुरु ही ब्रह्मा है - रचयिता है, गुरु ही विष्णु है - पालनहार है, गुरु ही शिव है - विनाशकर्ता है। गुरु स्वयं ही शरीरस्थ सर्वोच्च ब्रह्म है: उस दिव्य गुरु को मेरा नमन।
इस वर्ष 2020 में गुरु पूर्णिमा 5 जुलाई को है
पूर्णिमा तिथि का आरम्भ - 4 जुलाई, सुबह 11.33 पूर्वाह्न
पूर्णिमा तिथि का अंत - 5 जुलाई, सुबह 10.13 पूर्वाह्न
Read original article in English