हिन्दुत्व एक धार्मिक प्रतिरोध
भविष्यकाल, विभिन्न प्रकार से, एक गहन एवं प्रचंड युद्ध होगा सभी धार्मिक शक्तियों का उन शक्तियों के विरुद्ध जो धर्म को भ्रष्ट एवं नष्ट करने की धमकी देती हैं, पृथ्वी के किसी भी स्थान पर। हिंदुत्व, ऐसी हानिकारक शक्तियों के विरुद्ध एक प्रथम पुष्ट मोर्चा है।
इस बात की पुनरावृत्ति आवश्यक है कि हिंदुत्व आक्रामक अथवा हिंसक नहीं हो सकता, क्योंकि सभी प्रकार की आक्रामकता तथा हिंसा हिंदुत्व के मूल स्वभाव का प्रतिवाद करती है। वह जो हिंदुत्व की रक्षा के लिए आगे आएँगे और संघर्ष करेंगे, उन्हें यह सदा स्मरण रखना चाहिए। हिंदुत्व की वास्तविक शक्ति उसकी आत्मा में है, उसके चेतना के विकास के मूल सिद्धांत में है। चेतना के निरंतर विस्तार तथा वर्धिकरण के मूल विचार के इर्द ही नवीन हिंदुत्व के कथानक का मूल सिद्धांत बनना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो शक्तियां हठधर्मिता पूर्वक हिंदुत्व की विरोधी हैं, उन शक्तिओं से संघर्षरत होना होगा, पीछे हटाना होगा, हरसंभव प्रकार से उन्हें विफल करना होगा। लेकिन जैसे प्रायः सभी संघर्ष करते हैं, कट्टरता और शस्त्रीकरण से, वह हिंदुत्व का मार्ग नहीं हो सकता। हमें यह सरल तथ्य सदा स्मरण रहना चाहिए कि हम अंततः एक जीवनशैली की रक्षा के हेतु संघर्ष कर रहे हैं, और यह जीवनशैली, जिसकी हम कैसे भी व्याख्या करें, वह हिंसा या आक्रामकता को न्यायसंगत नहीं मानती। परन्तु, इसका अर्थ यह नहीं कि हमे आक्रामकता का विरोध नहीं करना चाहिए। जैसे की दैहिक या सैन्य हिंसा विकल्प नहीं है, दूसरा गाल आगे करना भी विकल्प नहीं है। हमें प्रतिरोध की कला सीखने की आवश्यकता है। गांधी का "निष्क्रिय प्रतिरोध" नहीं परन्तु श्रीकृष्ण का धार्मिक प्रतिरोध - स्वयं के गहनतम सत्य के प्रकाश में पूर्ण समभाव के साथ स्थापित रहना तथा सत्य एवं धर्म के लिए स्वयं का पूर्णत्याग करने के लिए तत्पर रहना; वीरगति को प्राप्त होने हेतु अथवा शत्रुवध करने हेतु तैयार रहना, परन्तु लेशमात्र व्यक्तिगत प्रतिक्रिया, घृणा या प्रतिशोध के बिना।
इसका अर्थ है की हमे युद्ध का आंतरिक संघर्ष के रूप में बोध करना होगा। आंतरिक स्थिति में स्थापित होना की विद्या को ग्रहण करना होगा, आध्यात्मिक आस्था तथा आत्मशक्ति पर आधारित आतंरिक स्थिति। अधिकतर युद्ध बाह्य जगत में घटित होते हैं, तथापि अशांति तथा अकारण विनाश होता है, परन्तु विकास विरोधी आसुरिक शक्तियां जीवित रह जाती हैं। बाह्य हिंसा विकास विरोधी आसुरिक शक्तिओं का नाश नहीं कर सकती, क्योंकि यह आसुरिक शक्तियां जन मानस की चेतना में वास करती हैं, तथा कोई भी बाह्य युद्ध उन्हें नष्ट नहीं कर सकता। आसुरिक शक्तियों को उनकी रिसती जड़ों से उखाड़ फेंकने के लिए, हमें सबसे महत्वपूर्ण युद्धक्षेत्र में युद्ध करने की कला का ज्ञान प्राप्त करना होगा - चेतना का युद्धक्षेत्र। यह धार्मिक प्रतिरोध का आयात है : अधर्म के समक्ष एक पर्वत के समान स्थिर अवस्था में रहना होगा, अडिग, अविचल तथा पूर्ण - ताकि सत्य की चेतना हमारे गिर्द एक शक्तिपूर्ण क्षेत्र का निर्माण कर सके
ऐसे धार्मिक प्रतिरोध के लिए, योद्धा को निश्चय ही अपनी आत्मा से सत्य की खोज करनी होगी। धर्म योद्धा को निश्चय ही स्वयं के लिए चैतन्य के बल एवं साधनों की प्राप्ति करनी होगी, जो कि समस्त भौतिक, आर्थिक तथा सैन्य साधनों से, जिनका हम संग्रह कर सकते हैं, उनसे भी कल्पनातीत रूप से अत्यधिक विशाल हैं। वास्तव में, बाह्य साधन, भौतिक, आर्थिक एवं सैन्य, अपने यथार्थ उद्देश्य को तभी पाएंगे जब उनका नेतृत्व चैतन्य द्वारा होगा, आत्मिक सत्य एवं धर्म की शक्ति द्वारा होगा।
यह सब सुनने में अमूर्त विचार तथा अव्यवहारिक लग सकता है, उनको जिनमे धर्म को लेकर अगाध उत्साह है, जिन्हें बाह्य संघर्ष का मार्ग अधिक प्रभावकरी प्रतीत होता है। परंतु हमें प्राचीन धर्मयुद्ध स्मरण करना चाहिए जो सर्वप्रथम मनस, बुद्धि तथा आत्मा की युद्धभूमि पर लड़ा गया था। श्रीकृष्ण सर्वप्रथम अर्जुन को धर्म की विशाल आत्मीय अनुभूति तक लाते हैं, आत्मा के बृहत सत्य तक लाते हैं, और उसके पश्चात ही वह अर्जुन को युद्धभूमि में शत्रुवध एवं विजय की प्राप्ति के लिए भेजते हैं। भगवद गीता केवल रूपक नहीं है, यह प्रत्येक शब्द तथा वाक्य में वास्तविक सत्य है। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है की आधुनिक विद्वानों में गीता की मनोवैज्ञानिक रूपक के रूप में व्याख्या करने का चलन चल गया है, पर हमें इस सबसे विचलित नहीं होना चाहिए; गीता प्रत्यक्ष रूप से वास्तविक सत्य है। अर्जुन का जिस धर्मयुद्ध के लिय आह्वान किया गया था वह जितना वास्तविक तब था उतना ही वर्तमान में भी है; अधर्म की शक्तियां उग्र रूप से, पूर्वकाल की अपेक्षा और भी अधिक प्रचण्डता एवं विकरालता से वर्तमान में कार्यरत हैं। हमें आज एवं अभी गीता का वास्तविक रूप से अपने ब्रहमास्त्र के रूप में उपयोग करने की आवश्यकता है। और वर्तमान में यह आवश्यकता पूर्व काल की किसी भी आवश्यकता से अधिक है।
गीता के गूढ़ आध्यात्मिक संदेश को धर्मयुद्ध के ऐसे विकट समय में त्यागना और विनाश के शस्त्रों की तरफ भागना सर्वथा उजड्डपना होगा। गीता हमारे कर्म और कर्मशैली की नियमावली है, युद्ध की पूर्ण रणनीति है, विजय का आश्वासन है।
और यह रणनीति यथार्थ में क्या है? यह केवल दो बिंदुओं में संक्षिप्त किया जा सकता है :
सर्वप्रथम, स्वयं को स्वयं के सत्य में स्थापित करो, आत्मस्थित बनो। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्वयं को धर्म में दृढ़ता से स्थापित हुए बिना, धर्मयुद्ध में जाना, सैनिकों का बिना किसी प्रशिक्षण के युद्ध में जाने से भी अधिक अश्रेष्ठ है। आत्मस्थित होना एक अमूर्त विचार नहीं है, श्री कृष्ण ने अर्जुन को पूर्ण स्पष्टता से इसका बोध कराया था; वास्तव में यह विजयप्राप्ति का अचूक मार्ग है। आत्मा ही बल और ज्ञान का परम स्रोत है, वह योद्धा को पूर्णतः एक अन्य स्तर तक अवरोहित कर देती है। आत्मा इस धर्मयुद्ध की परिस्तिथीयों को पूर्णतः परिवर्तित करने का एकमात्र मार्ग है।
द्वितीय, आत्मस्थित होने के पश्चात, युद्ध के निष्कर्ष को ईश्वर को समर्पित कर दो, विजय प्राप्ति की समस्त व्यक्तिगत माँग का त्याग कर दो और ईश्वर के अनंत बृहत् ज्ञान एवं दृष्टि पर अपना विश्वास स्थापित कर दो, जो कि अचुक रूप से विश्व में समस्त जीवन का मार्गदर्शन करता है। जब हम यह करते हैं, तब हम वास्तविक एवं व्यवहारिक रूप से स्वयं को ईश्वर के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं प्रेरणा के लिए प्रस्तुत करते हैं, हम इस विशाल ईश्वरीय शक्ति की प्रकिया में निमित्त बन जाते हैं और अपने अत्यल्प यंत्रों एवं साधनों तक सीमित नहीं रहते। यह कार्य अतिसरलता से किया जा सकता है अगर हमें इस गहन सत्य का बोध हो जाए की धर्म एवं धर्म युद्ध अंततः मनुष्य जाति के हाथ में नहीं बल्कि ईश्वर के हाथ में हैं। अगर धर्म सच में सनातन है तो उस की सुरक्षा सनातन चैतन्य के द्वारा होगी। हम केवल निमित्त मात्र हैं, चाहे हमें अच्छा लगे या ना लगे। वह जो ईश्वर की ब्रह्मण्डिया दृष्टि में घटित हो चुका है अंततः जगत में वही होगा। निमित्त के रूप में हमारा कार्य, अपनी बुद्धि एवं हृदय को, अपनी इच्छा एवं कर्म को, ईश्वर के प्रति संरेखित रखना है और युद्धभूमि में इस अंतर ज्ञान के कवच की सुरक्षा के साथ उतरना है, जिसका सामना किसी भी प्रकार की बाह्य शक्ति नहीं कर सकती।
इस प्रकार से हम धर्म के परम योद्धा में रूपांतरित हो जाते हैं। युद्ध में जाने के पूर्व इस विषय पर मनन करना अति आवश्यक है।
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