प्रतीक एवं उसका सार
यह संवाद एक ऋषि एवं उनके तीन शिष्यों के मध्य पुरातन काल के एक आश्रम में हुआ था। ऋषिवर अपने युवा शिष्यों को श्री गणेश के रहस्य की गहनता के दर्शन कराते हैं। शिष्य ऋषिवर को आचार्य कह कर सम्बोधित कर रहे हैं। शिष्यों के नाम तो उपनिषद की कहानियों में जीवित हैं, परंतु यह ऋषिवर, उन कुछ ऋषिओं की भांति अज्ञात हैं जिन्होंने सर्वोच्च सत्य को पृथ्वी पर धारण किया था। ऐसे ऋषि, दीर्घ काल पूर्व ही नाम और रूप से परे जा चुके हैं।
वह गणेश चतुर्थी से एक दिवस पूर्व की संध्या थी। सूर्यदेव क्षितिज पर नारंगी प्रकाश के रूप में विद्यमान थे। वृक्षों के मध्य से सरसराती हुई प्रवाहित हो रही मंद पवन को छोड़कर, आश्रम में और कोई हलचल नहीं थी।
ऋषिवर के युवा शिष्य वटवृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। उनके ओजस्वी आचार्य, ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे शांत ध्यान अवस्था में हों। कुछ दूर से उन्हें गायों की घंटियों की ध्वनि सुनाई दे रही थी, जो सम्भवतः अभी भी चर रहीं थीं।
अरुणी, जो कि आचार्य के सबसे युवा शिष्यों में से था, ने नमन के लिए अपने हाथ जोड़े तथा अपने कण्ठ को निर्बाध किया। वह संध्या की शांति को भंग नहीं करना चाहता था इसलिए उसने मंद स्वर में पुकारा, “आचार्य?”
आचार्य के अपने चक्षु खोले और अरुणी की ओर देखकर मुस्कुराते हुये कहा, —- “हाँ, अरुणी?”
“क्या श्री गणेश सच में हैं या यह केवल एक आध्यात्मिक दन्तकथा है?”
“अरुणी, सच क्या है?”
“मेरा पूछने का अर्थ था, क्या वह सच में ईश्वर हैं?”
“और ईश्वर क्या है?” ऋषिवर ने अपने नेत्र में एक चमक के साथ प्रश्न किया। अरुणी शांत रहा; उसे अच्छे से पता था की उसने अगर उत्तर दिया तो वह आचार्य की फाँस में आ जाएगा। ऋषिवर ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की, उनके नेत्रों में वह नटखट सी चमक अभी भी थी। उन्हें प्रायः अपने इन किशोर शिष्यों को स्पष्ट प्रशनों से, जिनके उत्तर नहीं दिए जा सकते थे, छेड़ने में आनंद मिलता था, और ऐसा प्रतीत होता था की शिष्यगण इस के आदि थे।
“ईश्वर,” आचार्य ने अपनी कोमल, मधुर वाणी में कहा, “वत्स, वह सर्वविद्यमानता है जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड प्रवाहमान है। यह सर्वविद्यमानता सर्वव्यापी है, नित्य है। तो फिर क्या या कौन ईश्वर नहीं है?”
शिष्यों ने सिर हिलाते हुए सहमति प्रकट की। पता नहीं क्यों, जब जब आचार्य ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ वर्णन करते थे, उन्हें एक शांत विशालता के भाव का अनुभव होता था। उन्होंने कई अवसरों पर इसका अनुभव किया था।
“वत्स, श्री गणेश एक द्वार हैं, उद्घाटन हैं इस सर्वविद्यमानता की ओर,” ऋषिवर ने आगे वर्णन किया, “श्री गणेश एक सांसारिक या दिव्य व्यक्ति नहीं हैं, परन्तु वह एक द्वार हैं जिसमें हम प्रवेश कर सकते हैं, अनंत रूप से! श्री गणेश का कोई अंत नहीं है।”
“क्या वह गज-ईश्वर…?” उपमन्यु, अरुणी से कुछ साल बड़े उसके मित्र, ने सकुचते हुए ऋषिवर की ओर देखकर कहा।
“गज-ईश्वर, निसंदेह” ऋषिवर मुस्कुराए, “वह न तो गज हैं और ना ही ईश्वर!”
किशोर शिष्य अब जिज्ञासु प्रतीत हो रहे थे। ऋषिवर कुछ क्षण के लिए चुप रहे। जैसे जैसे आकाश का वर्ण श्याम हुआ, गायों की घंटीयों का संगीत धीमा होता गया। कुछ क्षण मौन में बिताने के बाद ऋषिवर फिर से बोले : “श्री गणेश हमें अचिंत्य, अव्यक्त एवं अनंत रूप में ज्ञात हैं। क्या तुम जानते हो इन शब्दों के अर्थ क्या हैं?”
“अचिंत्य वह है जिसके बारे में चिंतन या विचार नहीं किया जा सकता, वह विचार से परे है।” उपमन्यू ने कहा।
“अव्यक्त,” अरुणी के कहा, “जो व्यक्त नहीं है, जो अभिव्यक्त नहीं है। और अनंत वह है, जिसका अंत नहीं है, शाश्वत।”
“निसंदेह,” ऋषिवर ने कहा, “और इसलिये, उसका कोई रूप नहीं होता, कोई गुण नहीं होता, ना कोई अस्तित्व होता है, जैसा की तुम्हें या मुझे ज्ञात है!”
“कोई अस्तित्व नहीं?” वरुण के प्रश्न किया। वह ऋषिवर का सबसे ज्येष्ठ शिष्य था, जो अब तक एक दार्शनिक बन चुका था।
“वह जो किसी भी स्वरूप में उपस्थित नहीं है, वह अव्यक्त है - वरुण; तथापि, हमारी मानव चेतना के लिए वह अस्तित्वहीन है। यह एक गहन विषय है,” ऋषिवर के कहा, “श्री गणेश को परब्रह्म के वास्तविक रूप के रूप में जाना जाता है, परब्रह्म रूप:!”
“परब्रह्म,” अरुणी ने कहा, “जो अवश्य ही निराकार है। तो निराकार का आकार कैसे हो सकता है, आचार्य?”
“अगर तुमने यह समझ लिया, अरुणी,” ऋषिवर ने कहा, “तो तुम श्री गणेश को समझ जाओगे और यह भी समझोगे की उन्हें गज रूप में क्यों दर्शाया गया है।”
“आचार्य,” अरुणी उसी क्षण बोला, “अब मैं यह रहस्य जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ। कृपया हमें बताएं!”
“यह निराकार वास्तव में निराकार नहीं है। सर्वप्रथम यह जानो। मानव चेतना केवल भौतिक या मानसिक रूप का बोध कर सकती है : वह रूप जो बाहर से हमें दिखाई देता है अथवा वह रूप जो हमारे मन एवं कल्पना में उत्पन्न होता है। इन प्रकट रूपों से परे भी एक रूप है, व्यक्त से परे, जो मन और इंद्रियों के लिए अव्यक्त है, पर अंतर चेतना के समक्ष स्पष्ट और व्यक्त है। यही है जिसको स्वरूप की संज्ञा दी गई है।”
“क्या स्वरूप का बोध कभी सम्भव है, आचार्य?” अरुणी ने प्रशन किया।
“अवश्य पुत्र, स्वरूप को वह जान सकता है जो स्वयं वो बन जाए जिसे वह जानना चाहता है। हमारे पूर्वजों ने इसे तदात्मय ज्ञान की संज्ञा दी है — आप जिसका बोध करते हैं वह आप बन जाते हैं, जैसे की जो आप बन जाते हैं उसका आपको बोध हो जाता है।”
फिर ऋषिवर ने धीरे से उच्चारण किया, अधिकतर स्वयं से ना की शिष्यों की ओर— "अजम निर्विकलपम् निराकारमेकम… श्री गणेश अजन्में हैं, अपरिवर्तनीय एवं निराकार हैं… और उनके लिए जिनके पास आध्यात्मिक दृष्टि है, योग की दृष्टि है, उनके लिए गणेश साक्षात उस सर्वविद्यमानता की चेतना के रूप में ज्ञात हैं। वह स्वयं दिव्य शक्ति हैं, जो ब्रह्मांड को चलायमान करती है तथा वह भँवर हैं जिसमें समस्त ब्रह्मांड विलीन होगा…इस लिए यह कहा जाता है की उनका जन्म शिव और पार्वती से हुआ है, स्वयं परमेश्वर और उनकी शक्ति से।”
वातावरण जैसे विद्युत से प्रभारित हो गया हो, ऋषिवर अपने रहस्यमय उच्चारण के पश्चात अपने आसन में स्थिरता से विराजमान थे; उनके नेत्र बंद थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे किसी और लोक मैं हैं, जैसे कि गणेश में तल्लीन, ब्रह्म के किसी अगम्य आयाम में। तीनों किशोर शिष्य प्रतीक्षारत थे, प्रायः तन्मय अवस्था में लीन।
एक अनंत प्रतीत होने वाली कालवधि के पश्चात, आचार्य बोले, “ दैवीय इच्छा और कृपा के बिना श्री गणेश का बोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि गणेश, जो कि दिव्य जोड़ी की प्रथम संतान हैं, उनका बोध स्वयं दिव्य ईश्वर को जानने के समान है। वह साधक जो गणेश पर ध्यान लगाता है और उनकी प्राप्ति करता है, वास्तव में शिव एवं उनकी शक्ति की प्राप्ति करता है।”
“अब मैं तुम्हें प्रत्यक्ष रूप से बताता हूँ कि पार्वती के प्रतीक, दिव्य शक्ति से निर्मित, गणेश कैसे सृष्टि में अवतरण करते हैं। मेरे इन शब्दों का ध्यानपूर्वक श्रवण करो और उन पर मनन करो — क्योंकि यह शब्द जिन्हें मैं व्यक्त कर रहा हूँ इनके पीछे, सत्य की शुद्ध शक्ति विद्यमान है, और तुम्हें इस शक्ति को अवश्य ही स्वयं में सम्मिलित कर लेना चाहिए। वास्तव में, इसी शक्ति से, ना कि तुम्हारी बुद्धि या पूर्व ज्ञान से तुम गणेश के सत्य का साक्षात्कार करोगे।”
इस प्रकार बात करते हुए, ऋषिवर ठहरे ताकि ये शब्द किशोर शिष्यों के अंतर में समा सकें। प्रत्येक शिष्य को ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे आचार्य के शब्दों के द्वारा विद्युत उनके सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रही थी। प्रत्येक को यह ज्ञात था कि कभी कभी आचार्य बुद्धि के स्तर से नहीं पर चेतना के उस स्तर से बोलते हैं जहाँ पर विचारों या वाणी के किसी भी हस्तक्षेप के बिना, जो प्रत्यक्ष रूप से दृष्ट होता है वही प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त होता है।
“श्री गणेश को गणपति के नाम से भी जाना जाता है — गणों के स्वामी,” आचार्य ने आगे बोला, “गण का अर्थ है समूह या झुंड। यह समस्त ब्रह्माण्ड समूहों एवं झुंडों से निर्मित है। वह परमाणु जिससे सारा भौतिक जगत निर्मित है, वह स्वयं सूक्ष्म परमाणु कणों का एक समूह है; जब तुम ब्रह्मांड के सूक्षमतम मापक्रम तक पहुँच जाओगे जहाँ पर दिक् और काल लुप्त हो जाते हैं, तुम देखोगे कि वहाँ केवल शक्ति के अदृश्य चक्रवात हैं जो स्वयं सूक्ष्म शक्ति-क्षेत्रों के समूह हैं। जैसे जैसे तुम मापक्रम में ऊपर जाते हो, तुम देखोगे कि यह समूह बड़े होते जाते हैं, सूक्ष्म शक्ति-क्षेत्रों से सूक्ष्म परमाणु कण, सूक्ष्म परमाणु कणों से अणु, अणुओं से वायुरूपी द्रव्य और वायुरूपी द्रव्य से तारे, और तारों से आकाशगंगाऐं। ब्रह्मांड को ध्यान से देखो और तुम्हें सब ओर समूह ही दृष्ट होंगे। सकल दिक् और काल समूहरूप हैं, कुछ प्रत्यक्ष हैं, परंतु बहुधा अप्रत्यक्ष हैं। तुम्हारे स्वयं का भौतिक शरीर भी कोशिकाओं, ऊतकों, अंगों का समूह है। पृथ्वी के समस्त जीव समूह ही हैं, रोगाणुओं एवं जीवाणुओं के विनीत समूहों से ले कर स्तनधारी पशुओं एवं मनुष्यों तक; और फिर व्यक्तियों के समूह, जन जातियों के, गाँव के, नगरों के और राष्ट्रों के समूह।”
“हमारे स्वयं के अंदर, मानसिक स्तर पर, हमारी अनुभूति की इंद्रियाँ एवं कर्म की इंद्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियाँ, भी समूह ही हैं। मन इंद्रियों को नियंत्रित करता है। बुद्धि, जो की विवेक शक्ति है, मन को नियंत्रित करती है। तथापि, दस इंद्रियाँ, मन एवं बुद्धि मिला कर बारह बनते हैं और इन सबके समूह को अंतर्गण की संज्ञा दी गयी है।”
“अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर,” आचार्य ने आगे कहा, “ऐसे समूह हैं। इसी तरह से सृष्टि या ब्रह्मण्डीय प्रकटीकरण विभेदित एवं व्यवस्थित है। और श्री गणपति गणेश इन सब समूहों के स्वामी या ईश्वर हैं। क्या तुम इस के सत्य को देख पा रहे हो? श्री गणेश वह शक्ति हैं जो इन सब अनेक समूहों को एक साथ रखते हैं,
वह धर्म हैं, सभी समूहों को साथ बाँधने वाली शक्ति हैं और उन के बिना जिस विश्वब्रह्मांड को हम जानते हैं, वह सरलता से टूट कर बिखर जाएगा।”
ऋषिवर के शब्द इतने स्पष्ट थे कि किशोर शिष्य जो सुन रहे थे उसे प्रायः देख भी पा रहे थे। चेतना की उस शक्ति के द्वारा जिसका ज्ञान केवल इन चेतना के
सिद्ध पुरुषों को ही होता है, ऋषिवर के वाक्, शिष्यों की साक्षात दृष्टि में परिवर्तित हो गए। जो श्रवण किया वह दृष्ट हो गया। इसीलिए चेतना के सिद्ध पुरुषों को द्रष्टा कह कर संबोधित किया जाता है।
“आचार्य, क्या श्री गणेश का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना सम्भव है?” उपमन्यू ने उत्कटता से पूछा।
ऋषिवर अपने शिष्य की ओर व्यापकता से मुस्कुराए, प्रत्यक्ष था कि प्रशन के पीछे की शक्ति से वह प्रसन्न थे। ”हाँ पुत्र,” ऋषिवर ने उत्तर दिया, “सब कुछ संभव है यदि एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की समस्त ऊर्जा को अपनी इच्छाशक्ति एवं अभिप्सा में ध्यान केंद्रित कर दे। तपस [1] तुम्हारे व्यक्तित्व की शक्ति है और संकल्प तुम्हारी इच्छाशक्ति एवं अभिप्सा है। जब तपस को संकल्प पर केंद्रित किया जाता है, तब जो भी मन में धारित है वह आत्मा में साध्य हो जाता है। यह योग का गुप्त रहस्य है पुत्र।”
संक्षिप्त व्याख्या का उद्देश्य तुरंत सिद्ध हो गया : सभी शिष्यों ने एक साथ एक धीमी एवं केंद्रित शक्ति की गति का अनुभव किया जो उनकी रीढ़ में अरोहित हो रही थी, निम्न चक्रों से ऊपर आज्ञा चक्र की ओर, भ्रूमध्य में - भौहें के मध्य का केंद्रबिंदु। तीनो शिष्यों के मन तत्काल शांत एवं ध्यान केंद्रित हो गए।
“कल गणेश चतुर्थी है”, आचार्य ने सहज भाव से आगे कहा, अपने शिष्यों का आशय से अवलोकन करते हुए, जैसे की प्रत्येक की अंतर तत्पर्ता को परख रहे हों, “और कल ही तुम श्री गणेश की ओर प्रथम निर्णयात्मक सोपान कर सकते हो। मेरे गुरु कहते थे कि साधना प्रारम्भ करने का सर्वोच्च समय वह क्षण है जिस क्षण अभिप्सा या प्रशन व्यक्ति की बुद्धि में उदित होता है।” पुनः आचार्य ने शब्दों के शिष्यों के मन में गहनता से प्रवेश करने की प्रतीक्षा की, जैसे कि बहुत ध्यान से साधना भूमि को तैयार कर रहें हों, अधिकतम ध्यान एवं सावधानी से बीजारोपण करते हुए। वास्तव में, गुरु की कृपा असीम है।
“मेरे बच्चों, समझो,” ऋषिवर ने कहा, “की चतुर्थी का क्या अर्थ होता है। तुम अपनी जागृत अवस्था से तो परिचित हो, और स्वप्न अवस्था से भी, एवं सुशुप्ति अवस्था - गहन निद्रा अवस्था से भी। इन अवस्थाओं की जानकारी तुम्हें अपनी दिनचर्या के अनुभव से है, तथा मैंने तुम्हें इन अवस्थाओं और इन के बीच के पारगमन के प्रति अत्यंत सचेत होने की शिक्षा दी है। पर एक चतुर्थ अवस्था भी है जिसका अनुभव तुम्हें अभी नहीं हुआ है, एक अवस्था जो तब तक अपने को प्रकट नहीं करती जब तक एक व्यक्ति की अंतर चेतना साधना के द्वारा पूर्णत: परिपक्व नहीं होती।”
जैसे उनके मनों की शांति और गहन होती चली गयी, आचार्य ने आगे कहा: “चतुर्थी - तीन अवस्थाओं - जागृत, स्वप्न और सुशुप्ति के परे की अवस्था है - चतुर्थ अवस्था। यह ही चतुर्थी का गुप्त या अंतर महत्व है, मेरे बच्चों। चतुर्थी की प्राप्ति ही हमारे योग की अभिप्सा है, सदा चतुर्थ अवस्था में स्थित रहना, तुरिया अवस्था,[2] जैसे हमारे पूर्वज सम्बोधित करते थे।”
आचार्य ने एक बार फिर विराम लिया। अब तक अँधेरा हो चुका था और पूरा आश्रम एक गहन शांति से आवृत था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तीनो शिष्य आकाशीय ज्ञान से प्रकाशमान थे जो कि ऋषिवर की अर्ध-उद्घाटित चक्षुओं से प्रवाहित हो रहा था। बाह्य एवं अंतर रूप से सब स्थिर था।
“केवल तब जब हमारा अंतरमन विचारशून्य हो जाता है और पूर्ण चेतना स्थिर हो जाती है, तब हम तुरिया अवस्था में प्रविष्ट होते हैं। यह चतुर्थी की साधना है — अपने मन को सर्वथा स्थिर बना लो, विचारशून्य, एकमात्र दिव्य ईश्वर की ज्योति की ओर केंद्रित - ज्योति: परस्य। एकमात्र वह ज्योति तुम्हें माया की महारात्रि से परे ले जाएगी, सत्य के नित्य प्रभात की ओर। इस प्रकार से अंतर मौन तक पहुँचने के लिए, मन को विचारों से मुक्त करने के लिए, व्यक्ति को उपवास करना होता है। यह चतुर्थी का प्रतीकात्मक उपवास है। उपवास केवल एक दिन तक भोजन का त्याग करना नहीं है परंतु स्वयं को इच्छा एवं द्वेतभाव की लीला से ऊपर के स्तर पर स्थापित करना है, प्रतीक स्वरूप तथा न्यूनतम एक दिवस के लिए। उपवास शब्द का ध्यानपूर्वक श्रवण करो — उप का अर्थ है निकट, जैसे की उपनिषद शब्द में उप, और वास यानी रहना या पालन करना। तथापि, जो व्यक्ति उपवास करता है, वह बाह्य जगत एवं उसके सब बाह्य एवं अंतर विकर्षणों से पृथक हो जाता है, और जिसके लिए वह उपवास करता है, चेतना में वह उस के निकट रहता है। मेरे बच्चों, इसलिए मैं तुम्हें यह कहता हूँ, उपवास के पूर्ण ज्ञान के साथ श्री गणेश के लिए चतुर्थी का उपवास रखो। यह बहुत कम महत्व रखता है कि तुम भोजन ग्रहण करते हो या नहीं; महत्व है 'भोजन' या अन्न का, जो तुम अपने मन और इंद्रियों को ग्रहण करने के लिए दोगे। जब तुम उपवास करते हो, तब तुम अपने मन और इंद्रियों का उपवास करते हो, और वह उपवास एक शुद्धि, एक परिमार्जन एवं एक दिव्य चेतना की तैयारी है। इसलिए सब प्रकार के उपवास शुद्धिकरण हैं। श्री गणेश के लिए उपवास करने का अर्थ है श्री गणेश की निकटता में वास करना, श्री गणेश को अपने मन एवं हृदय में स्थापित करना। यह गणेश चतुर्थी की वास्तविक महत्वपूर्णता है, मेरे बच्चों!”
आचार्य शांत एवं स्थिर अवस्था में चले गए, और आचार्य का शांत भाव उनके भौतिक शरीर की सीमाओं के बाहर प्रवाहित होता प्रतीत हो रहा था तथा धीरे से शिष्यों के अंतरतम व्यक्तित्व को पल्लवित कर रहा था। शिष्यगण अत्यंत सौभाग्यवान थे, गुरु की जीवंत उपस्थिति के लाभार्थी, गुरु के शांतभाव एवं कृपा का पूर्णत: सेवन कर रहे थे, और अपनी चेतना के किसी लघु परंतु प्रबुद्ध अंश में, वह अपने आचार्य के साथ एकत्व का अनुभव कर रहे थे।
अपने आचार्य के साथ कुछ अवधि के अन्तर योग के पश्चात, अरुणी ने अपने नेत्र खोले और फिर से पूछा : “श्री गणेश के जन्म का क्या रहस्य है आचार्य? यह एक गूढ़ रहस्य प्रतीत होता है, जिसे हम अंतर्ज्ञान के द्वारा केवल देखना प्रारम्भ कर पा रहे हैं। निराकार एवं अव्यक्त का जन्म कैसे हो सकता है?”
आचार्य मुस्कुराए और एक विराम के पाश्चात्य बोले — “तुमने बहुत समझदारी से प्रशन किया है, वत्स। नित्यस्वरूपी का ना जन्म है ना मृत्यु, ना आना ना पार जाना, ना आरोहण ना अवरोहण, यह नित्यरूपी गतिशून्य भी है, अपरिवर्तनीय एवं अकारण भी है। तो श्री गणेश के जन्म का क्या रहस्य है? प्राचीनकाल से यह कहा जाता है कि उनका सृजन सर्वोच इश्वरी माँ, पार्वती के शरीर पर जमा हुए मैल से हुआ था। और माँ, जिन्हें एकाकी भाव सता रहा था, उन्हें संतान की कामना थी जो उनका सहयोगी बने। स्पष्ट रूप से, दिव्य माँ को एकाकी भाव नहीं सता सकता : यह एकाकी भाव ऋषिकवि की एक सांकेतिक अभिव्यक्ति है नित्य एकांत भाव की, अद्वितीयता के सम्पूर्ण एकांत की। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि पार्वती जो शिव की, स्वयं ईश्वर की, अर्धांगिनी हैं, सदा शिव के साथ अंतरएकत्व की वासी हैं, क्योंकि ईश्वर की शक्ति ईश्वर के अंतर में इसी प्रकार वास करती है। अर्थात्, बृहत् माँ का एकाकी भाव वास्तव में स्वयं को व्यक्त करने की ईश्वरीय इच्छा की अभिव्यक्ति है, एक के अनेक बनने की प्रक्रिया। इसी प्रक्रिया से स्वयं शिव, शक्ति के गर्भ से ब्रह्माण्ड का प्रकटन करते हैं। इसलिए श्री गणेश वास्तव में प्रथम निर्मित हैं, प्रथम संतान, जो स्वयं इस ब्रह्मांड का रूप ले लेते हैं। ऐसा नहीं है कि गणेश ब्रह्मांड को उत्तपन्न करते हैं, स्वयं गणेश का व्यक्ति-करण ही ब्रह्मांड है। यही है जो हमें समझना है, मेरे बच्चे। फिर तुम्हें ज्ञात होगा कि क्यों और कैसे श्री गणेश गणपति हैं और श्री गणेश स्वयं सर्वत्र विद्यमान सर्वविद्यमानता हैं, और क्यों वह स्वयं इस विशाल सर्वविद्यमानता के द्वार हैं। इस ज्ञान के साथ, इस चतुर्थी श्री गणेश पर अपना ध्यान केंद्रित करो।”
शिष्यों ने आचार्य के शब्दों को गहन आनंद के साथ स्वीकार किया, जैसे शब्द स्वयं ही उनके अन्तर में आनंद के गहन स्रोत का उद्घाटन कर रहें हो, जैसे यह बोध स्वयं ईश्वर के आनंद स्वरूप था।
“क्या वास्तव में उनका शिर काट दिया गया था?” वरुण ने, पूर्वकाल की एक कथा के बारे में विचार करते हुए पूछा। जिस कथा में शिव ने, क्योंकि वह गणेश का अपने पुत्र के रूप में अभिज्ञान नहीं कर पाए, अपने त्रिशूल से उनका शिर शरीर से पृथक कर दिया था, क्योंकि गणेश ने उन्हें पार्वती की ओर जाने से रोका था।
आचार्य ने शिष्यों को फिर से कहा: “यहाँ एक रहस्य है जिसे हमें समझना चाहिए। आओ थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं। शिर किस का निरूपण करता है, वरुण?”
“मनस, बुद्धि, आचार्य,” वरुण ने उत्तर दिया।
“हाँ, अवश्य,” आचार्य ने कहा, “शिर मनस, चित्त, बुद्धि एवं अहंकार का प्रतीक है। यह शिर हमारी समस्त समस्याओं की जड़ है, अगर हम इसे एक प्रतीक समान समझें। अतः गणेश के शिर को शरीर से पृथक करना समस्त समस्याओं की जड़ के नाश का प्रतीक था, व्यक्तिगत मनस, चित्त, बुद्धि एवं अहंकार का नाश। और शिव के उस त्रिशूल का स्मरण रखो जिससे शिव ने गणेश का शिर काटा था… शिव का त्रिशूल, जो कि प्रकृति के तीन गुणों का प्रतीक है।।”
“हाँ आचार्य,” अरुणी ने कहा, “मैं स्पष्टता से देख सकता हूँ। यह अतिसुन्दर काव्य है, आचार्य!”
“काव्य वास्तव में क्या है, स्वयं सत्य की प्रेरणास्वरूप अभिव्यक्ति ही तो है?” ऋषिवर ने पूछा, “कवि ही दृष्टा है। भारतीय संस्कृति की समस्त ज्ञान एवं प्रज्ञता हम तक हमारे कवियों के माध्यम से ही पहुंची है, वह जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि के द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया और उस सत्य के कुछ अंशों को अपनी चेतना में ला पाए और उसे शब्द एवं वाक में परिवर्तित कर पाए। इस तथ्य को अंकित कर लो कि वह श्री गणेश ही हैं जिनका ऋषिकवि, अपनी महान कविताओं की अभिव्यक्ति आरंभ करने से पूर्व, आह्वान करते हैं!”
“वास्तव में, आचार्य!”, उपमन्यु ने कहा, “ऐसा क्यों?”
“क्या यह इस कारण नहीं,” अरुणी ने उपमन्यु से कहा, “कि श्री गणेश द्वार हैं, ईश्वर की सर्वविद्यामानता एवं सर्वज्ञान के लिए?”
“और,” वरुण ने एक और प्रश्न पूछा, “श्री गणेश का आह्वान सर्वप्रथम क्यों किया जाता है, अन्य देवी देवताओं से पूर्व?”
“हाँ, सत्य है,” आचार्य ने कहा, “ऐसा ही है। श्री गणेश उद्घाटन हैं, द्वार हैं तथा उनके आह्वान के अभाव में, व्यक्ति को उन सभी शक्तियों और प्राणियों के विरुद्ध संघर्ष
करना पड़ता है, जो हमारी साधना और कार्य का विरोध करती हैं। परंतु श्री गणेश के आह्वान से आरम्भ हो, तो व्यक्ति सभी विरोध एवं शत्रुता, सब समस्याओं, बाह्य एवं अंतरतम, को काटता हुआ अतिशीघ्र ही लक्ष्य तक पहुँच जाता है। जैसे कि श्रीगणेश की कृपा एवं शक्ति, कर्म और योग के सारे पथ खोल देती है तथा सारे अवरोध और कठिनाई हटा देती है। तथापि, श्री गणेश को अविघ्न एवं सिद्धिदाता के रूप में भी जाना जाता है, विघ्नों का नाश करने वाले एवं सर्वसफलता एवं प्राप्तियों के दाता।”
“फिर शिर विघटन के पश्चात क्या होता है, आचार्य? गज का शिर क्यों?” वरुण ने फिर से प्रश्न किया।
“यह विशेष रूप से रहस्यपूर्ण है,” आचार्य ने कहा, “गज का शिर ही क्यों? स्पष्ट प्रतिकवाद के अतिरिक्त, एक गज शिर शक्ति एवं बल का, ज्ञान एवं प्रज्ञता का प्रतीक है, यह ऋषि की एक सविचार काव्य युक्ति है, यह दर्शाने के लिए कि मनस, चित्त, बुद्धि, अहंकार के प्रतीक विघटित शिर के स्थान पर किसी और शिर का स्थापन नहीं हो सकता, क्योंकि उस प्रतिरूप को तो तोड़ना है, उस साँचे को अवश्य ही ध्वस्त करना चाहिए। तथापि एक गज का शिर — पूर्णतः विसंगत, पूर्णतः असाधारण और पूर्णतः उत्तेजक है। यह गहन एवं सम्मोहक आयात है — शिर का प्रस्थान अतिआवश्यक है, और सदा के लिए; कोई प्रतिस्थापन नहीं, कोई विकल्प नहीं है। यहाँ एक प्रतीकात्मक महत्व है पर उसे अत्यधिक गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। इसे एक काव्य अलंकार के रूप में लेना चाहिए।”
“अर्थात्,” वरुण ने ध्यान अवस्था से टिप्पणी की, “शेष गज-शरीर भी इसी प्रकार अलंकार होगा, एक प्रतीक और सुझाव जिससे अत्यधिक गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए?”
“अवश्य” ऋषिवर ने उत्तर दिया, “यह इसलिए क्योंकि प्रतिकवाद एक प्रकार की मनस-बुद्धि एवं स्वभाव वाले लोगों को आकर्षित करेगा ताकि वह अपनी भक्ति ईश्वर के कुछ विशेष गुणों पर केंद्रित कर सकें। उदाहरण के लिए, एक दंत, ऐसी ध्यान-अवस्था का प्रतीक है जिसमें व्यक्ति का ध्यान केवल एक वस्तु या विचार या विषय पर केंद्रित रहता है, विघटित दाँत उस सामर्थ्य का प्रतीक है जिसके द्वारा हम जो भी अनावश्यक है उसका त्याग करें, विशाल कान जो की गहन एवं सार्वलौकिक श्रवण के प्रतीक हैं, छोटा मुख वाणी की संयमता का प्रतीक है, विशाल उदर जो की सब कुछ ग्रहण और धारण करने की क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है; उनके हाथ में धारित अंकुश या कुल्हाड़ी आत्मबोध का प्रतीक है क्योंकि उसमें बंधनों एवं अज्ञानता की समस्त गाँठों का विघटन करने का सामर्थ्य है, तथा पाश या रस्सी नियंत्रण का द्योतक है। किसी भी गूढ़ आध्यात्मिक उद्बोधन के लिए प्रगाढ़ नियंत्रण की आवश्यकता होती है क्योंकि इस उद्बोधन की प्रक्रिया में अगाध उर्जा का उत्पादन होता है।”
"किन्तु प्रतीकवाद के परे गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य है, कि निराकार का निरूपण साकार में हो ही नहीं सकता। श्रेष्टम् कविसुलभ या कलात्मक प्रतिरूप, आध्यात्मिक सत्य को प्रकट तो कर देंगे किन्तु यह प्रतिरूप समय के साथ क्षय तथा विकृत होकर आकारवाद एवं कर्मकांड का स्वरूप ले लेंगे। जिन्हे सूक्ष्म ज्ञान नहीं है वह अंततः केवल आकार को दृढ़ता से पकड़ लेते हैं और सार को भूल जाते हैं, जो सत्य स्वरुप है।”
“इस सत्य, इस सार को, अपने हृदय में रखो : श्रीगणेश, जो परमात्मा के अंतर्यामी द्वार हैं, वह हमारे अंतर में हैं, हमें केवल अपने अंदर उनकी उपस्थिति का आह्वान करना है परमात्मा में प्रवेश के लिए…”
अब वहां गहन शांति थी, अंतर में भी और बाहर भी, जैसे चैतन्य मन में कमल रूपी ज्ञान खिल गया हो। जैसे जैसे अंतर में ज्ञान पुष्य खिल रहा था, बाह्य जगत में अंधेरा बढ़ता जा रहा था।
ऋषिवर फिर से उच्चारण करने लगे, गहन और धीरे, जैसे अपने अंतर की किसी अथाह चैतन्य की गहराई से स्वर निकाल रहे हों।
ॐ नमस्ते गणपतायै
त्वमेव प्रत्यक्षम् तत्वम् असि
त्वमेव केवलम् कर्ता असि
त्वमेव केवलम् धर्ता असि
त्वमेव केवलम् भरता असि
त्वमेव सर्वम् खलुविदम् ब्रह्म असि
त्वम् स्कंद आत्मा असि नित्यम्
(गणपति अथर्वशीर्ष, V.2)
हे श्रीगणेश
सब का एकमात्र व्यक्त सत्य एवं सार केवल आप हैं,
केवल आप ही एकमात्र कर्ता है, आप ही एकमात्र पालनहार हैं,
अंत में यह ब्रह्मांड आप में ही विलीन हो जाता हैं,
एकमात्र आप ही अनंत एवं सर्वविद्यमान ब्रह्म हैं,
एकमात्र आप ही शाश्वत व्यक्त आत्मा हैं।
ॐ नमस्ते गणपतायै
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