“ हिंदू धर्म... ने स्वयं को कोई नाम नहीं दिया, क्योंकि हिन्दू संस्कृति ने अपने लिए कोई सांप्रदायिक सीमाएं नहीं रखी ; विश्व से अपने अनुसरण की कोई माँग नहीं रखी, किसी एक अचूक रूढ़ि का दावा नहीं किया, कोई एक संकरा मार्ग या मोक्ष का द्वार स्थापित नहीं किया ; यह एक पंथ या सम्प्रदाय कम, बल्कि मानव आत्मा की ईश्वर की ओर बढ़ने की, उसके निरंतर विस्तृत होते प्रयास पर आधारित परंपरा ज़्यादा थी। आत्म साक्षात्कार एवं आत्म निर्माण का विशाल, बहु पक्षीय एवं बहु चरणीय प्रावधान, जिसके पास स्वयं को इस एक नाम से सम्बोधित करने का पूर्ण अधिकार था, और केवल एक ही नाम जो उसे ज्ञात था, सनातन धर्म ….”
श्री अरविंद, भारत का पुनर्जन्म ( India’s Rebirth)
हिंदू धर्म और मानवता का भविष्य
क्या एक धर्म-व्यवस्था समय के साथ विकासशील हो सकती है, अपने मूलतत्वों का संशोधन कर सकती है, और नवीन परिस्थितियों एवं माँगों के प्रति रचनात्मक ढंग से प्रतिक्रिया दे सकती है? या फिर एक धर्म-व्यवस्था को अपने संस्थापक या संस्थापकों द्वारा किए प्रकटीकरणों एवं मान्यताओं को निरंतर पुनरावृत्त करते हुए, सदा के लिए अपनी प्रारंभिक परिस्थितियों से बंधे रहना चाहिए? यदि मानव चेतना का समय के साथ विकास होता है, तो क्या धर्म-व्यवस्थाओं को भी विकसित नहीं होना चाहिए? क्या धर्म-व्यवस्थाओं का मानवता के लिए कोई विकासमूलक महत्व है?
इन सभी अति महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर, व्यापक रुप से इन बातों पर निर्भर करेंगे कि वह धर्म-व्यवस्था कैसे आरंभ हुई और कैसे उसका समय के साथ विकास हुआ , इस धर्म-व्यवस्था के अनुयायी किस प्रकार उसका उपयोग अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक अन्वेषणों एवं यात्राओं के लिए कर पाए, या उन्हें करने दिया गया, धर्म-व्यवस्था के दिए गए अधिकारों की सीमाओं में।
हमारी समीक्षा के प्रयोजन के लिए, हम धर्म-व्यवस्थाओं को गतिहीन या गतिशील श्रेणियों में बद्ध करेंगे। एक गतिहीन धर्म-व्यवस्था वह है जो की अपने संस्थापक या संस्थापकों से प्रत्यक्ष रूप से आरम्भ हुई केंद्रीय एवं स्थायी मान्यताओं के आधार पर व्यवस्थित है ; एक गतिशील धर्म-व्यवस्था वह है जो की रहस्यपूर्ण एवं आध्यात्मिक है तथा वह मान्यताओं या मूल्यों की किसी विशेष व्यवस्था का पालन नहीं करती।
अतः एक गतिशील धर्म-व्यवस्था विकासमूलक होती है जबकि गतिहीन धर्म-व्यवस्थाएँ अपरिवर्तनवादी होती हैं। परंतु यह हमेशा पूर्णतः सत्य नहीं होता। वास्तविकता में सत्य अधिक सूक्ष्म होता है। कोई भी धर्म-व्यवस्था पूर्णतः गतिशील या पूर्णतः गतिहीन नहीं है : सभी धर्म-व्यवस्थाओं में कुछ गतिशील तत्व एवं सम्भावनाएँ होती हैं तथा कुछ रूढ़िवादी तत्व एवं प्रक्रियाएँ होती हैं। किसी भी धर्म-व्यवस्था को यह बात गतिशील बनाती है कि प्रयोग एवं अभ्यास में किस प्रकार से विकासशील एवं रूढ़िवादी तत्वों का संतुलन बनाया जाता है, तथा समय के साथ किन तत्वों को महत्व दिया जाता है और किन तत्वों को महत्वहीन बनाया जाता है। संवेदनशीलता एवं अनुकूलन क्षमता निश्चय ही एक गतिशील एवं विकासमूलक धर्म-व्यवस्था के महत्वपूर्ण लक्षण होंगे, तथा जड़ता एवं कठोर अनुपालन एक गतिहीन धर्म-व्यवस्था के लक्षण होंगे।
इस लेख के प्रारंभिक भागों में हम हिंदू धर्म का अन्वेषण करेंगे, यह जानने के लिए की उसकी विकासमूलक संभावनाएँ क्या हैं। और क्या वह इक्कीसवी शताब्दी की मानवता की लिए आध्यात्मिक रूप से प्रासंगिक रह सकता है?
हिंदू धर्म और विकासक्रम: क्या एक धर्म-व्यवस्था समय के साथ विकसित हो सकती है?
अगर एक धर्म-व्यवस्था किसी विशेष अतिपवित्र परम्परा या अचूक ईश्वर मीमांसा, एक विशेष भविष्यवक्ता, मसीहा या शास्त्र से बंधी हुई है , तो यह स्पष्ट है कि वह विकसित नहीं हो सकती। एक धर्म-व्यवस्था को विकसित होने के लिए, उसे आवश्यक रूप से अपनी बहुत सारी परंपरागत मान्यताओं एवं प्रथाओं को पीछे छोड़ कर विकसित होना होगा। कोई भी वास्तविक विकास उन रूपों एवं सूत्रिकरणों को पीछे छोड़े बिना नहीं हो सकता, जो धर्म-व्यवस्था के अनुयायियों के लिए अप्रासंगिक एवं व्यर्थ हो चुके हैं।
विकासशील होने के लिए एक धर्म-व्यवस्था को अपने आधारभूत मूल्य के रूप में सतत अनुसंधान भाव को एवं अनुभवात्मक आध्यात्मिक ज्ञान को अपने मूल के रूप में धारण करना ही चाहिए।
हिंदू धर्म तार्किक रूप से एक ऐसी धर्म-व्यवस्था है जिसमें नवीन रूपों और अनुभव मंडलों में विकसित होने की एवं इक्कीसवीं सदी की मानवता के लिए अधिक अनुकूल समझ में विकसित होने की क्षमता है। और यह कार्य वह इस लिए भी सटीक रूप से कर सकता है क्योंकि अपने 5000 वर्ष से अधिक के अस्तित्व काल में हिंदू धर्म केवल सतत संशोधन एवं विकास प्रक्रिया से ही विकसित हुआ है।
हिंदू धर्म, श्री अरविंद के शब्दों में, सदा से ही मानव आत्मा के ईश्वर की ओर बढ़ने के प्रयास की एक विस्तृत होती परंपरा रही है। हिंदू धर्म इसी प्रकार से, आध्यात्मिक ज्ञान के एक विशाल एवं विभिन्न मंडल के रूप में , स्वयं को निरंतर विस्तृत करते हुए, मान्यताओं के कठोर अनुपालन की अपेक्षा अनुसंधान के असम्मत भाव पर बल देते हुए, और हठधर्मिता की अपेक्षा सत्य के चुनाव का आग्रह करते हुए , समय के साथ विकसित हुआ है।
हिंदू धर्म में प्रत्यक्ष आध्यात्मिक अनुभव का मूल्यांकन सदा से ही हठधर्मी मान्यताओं या शास्त्रीय संदर्भों से अधिक किया गया है। श्रुति (वह जो प्रकट एवं श्रुत अथवा सुना जा सकता है), एवं साक्षात्कार (प्रत्यक्ष दृष्ट एवं ज्ञात) का सदा से ही हिंदू परंपरा में गहन महत्व रहा है और इन्हें अन्य सभी स्रोतों या प्रमाणों से उच्च माना जाता है।
यहां यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि श्रुति, प्रत्यक्ष अंतरज्ञान एवं आध्यात्म द्वारा प्रकाशित, एक सतत गतिशील प्रक्रिया है। जो ज्ञान एक ऋषि (ऋषि, साधु या पैग़म्बर) के समक्ष प्रकाशित हुआ है उसका किसी दूसरे ऋषि के समक्ष प्रकाशित हुए ज्ञान से अधिक्रमण हो सकता है। यह अधिक्रमण कुछ काल के पश्चात या फिर समकाल में भी हो सकता है। किसी भी एक ऋषि या एक पैग़म्बर का वचन अंतिम वचन नहीं होगा, ऐसा हिंदू धर्म में स्पष्टता से विदित किया गया है। चेतना एक गतिशील एवं निरंतर विकासशील प्रक्रिया है और ऐसी प्रक्रिया का कोई एकमात्र अंतिम उत्पाद या अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। किसी भी ऋषि या पैग़म्बर का वचन अंतिम नहीं हो सकता, यद्यपि हिंदू धर्म का प्रत्येक ऋषि एवं पैग़म्बर एक आवश्यक कड़ी हैं और एक उन्नति-सोपान हैं सर्वोच्च सत्य के मार्ग पर। हर ऋषि एवं पैग़म्बर एक मार्ग दर्शक एवं आचार्य है, और प्रत्येक का हिंदू जगत में अपना एक स्थान है।
यह सत्य है कि हिंदू धर्म के अपने शास्त्र हैं, पर वह अपने किसी भी शास्त्र से बाधित नहीं है, वह किसी भी शास्त्र को अचूक नहीं मानता है, वह किसी भी आचार्य या ऋषि को अचूक नहीं मानता है। अशुद्धता, वास्तव में, हिंदू धर्म की एक मूल धारणा है। जब तक हम सापेक्ष अज्ञान में रहते हैं, और जब तक हम पूर्णतः सर्वोच्च सत्य चेतना के साथ तादात्म्य एवं एकत्व स्थापित ना कर लें, तब तक हम अशुद्ध या भ्रांत रहेंगे।
एकमात्र “अचूक सत्ता ” जिसे हिंदू धर्म मान्यता देता है और जिसका वह आदर करता है, वह है अन्तर्वासी दिव्य सत्य, अन्त: आचार्य एवं अन्तर्गुरु, वह अन्तर्वासी दिव्यता या ईश्वर।
यह समझना महत्वपूर्ण है: अंतिम आध्यात्मिक स्वामित्व अन्तर्वासी सत्य का है, वेदों में जिसे सत की संज्ञा दी गयी है। यह सत हर उस व्यक्ति को उपलब्ध है जो इस सत की साधना के प्रति अपनी समस्त ऊर्जा, भवदीय रूप से समर्पित करने के लिए तैयार है। सत को इस बात से कोई आपत्ति नहीं है की साधक ऊँची जाति का है या नीची जाति का, नास्तिक है या आस्तिक, हिंदू समाज में जन्मा है या किसी और मत में – सत तो सत ही है, और काल एवं स्थान के परे, सभी मनुष्यों के लिए उसकी उपलब्धि एक समान है।
यदि हिंदू धर्म का यह मूल सिद्धांत है, तो इसका स्पष्ट अर्थ है की धर्म का स्तोत्र जीवंत एवं गतिशील है और उसे एक इतिहास या परम्परा के ढाँचे में अश्मीभूत नहीं किया जा सकता।
इस तथ्य के विशाल निहितार्थ हैं। प्रथम, हिंदू धर्म का कोई भी सच्चा साधक वादविवाद, मतभेद और संशोधन को बाधित करने हेतु शास्त्र या आचार्य का उद्धरण नहीं कर सकता ; चाहे वह गुरु या आचार्य कितना ही उच्च या अग्रवर्ती क्यों ना हो, अंतिम मध्यस्थ केवल अंतर्तम तत्व ही है। इसी कारण, मद्रास में हो रही एक वेदांत गोष्ठी में, शास्त्र सम्बन्धी किसी एक तथ्य पर हो रहे वादविवाद के मध्य में , जब एक पंडित ने स्वामी विवेकानंद के दृढ़कथन पर यह कह कर आपत्ति जतायी कि वह कथन शास्त्र द्वारा स्वीकृत नहीं था, स्वामी विवेकानंद यह प्रत्युत्तर दे पाए “ परंतु मैं , विवेकानंद यह कहता हूँ! ”
इसी कारण श्री अरविंद, जो की हिंदू धर्म के सबसे अग्रणी प्रतिनिधि एवं आदर्शों में से एक है और जिन्हें हिंदू धर्म में एक महाऋषि के रूप में व्यापक मान्यता प्राप्त है, हिंदू धर्म को ना केवल उसकी शास्त्रीय एवं परंपरागत सीमाओं से आगे ले जाने में समर्थ हुए अपितु उसके विस्तार को, अविवादस्पद विश्व का सर्वोच्च श्रद्धेय हिंदू शास्त्र, भागवद गीता में श्री कृष्ण द्वारा सिद्ध एवं घोषित सीमाओं से भी कहीं आगे तक ले गए।
अपेक्षाओं के अनुकूल, हिंदू धर्म का परंपरागत एवं रूढ़िवादी रूप में व्याख्या एवं अनुसरण करने वाले लोग श्री अरविंद के निर्भीक नवीनीकरणों को सहन नहीं कर पाए। इन लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से श्री अरविंद की आलोचना की, यह दावा करने के लिए कि उनका योग, उस सब से जो आज तक हिंदू धर्म के समस्त पूर्व अवतारों एवं गुरुओं ने सिद्ध किया है, उससे कहीं आगे और परे है।
यही नहीं, कई बार श्री अरविंद ने यह भी स्पष्ट किया था, कि हिंदू धर्म की अवतार परम्परा अभी समाप्त नहीं हुई है, हिंदू धर्म में अंतिम अवतार की कोई धारणा ही नहीं है। जब तक अवतारों की विकासमूलक आवश्यकता रहेगी, तब तक पृथ्वी पर अवतार जन्म लेते रहेंगे।
अतः हिंदू धर्म में विकास की अनंत संभावनाएँ सम्मिलित है – प्राचीन काल से वर्तमान तक हिंदू धर्म अपने अग्रणी साधकों, योगियों, ऋषिओं, आचार्याओं के पुरुषार्थ की शक्ति से विकसित होता रहा है, और यह विकास प्रक्रिया निरंतर चलती रहेगी। परम्परावादियों की मान्यताएँ चाहे जैसी भी हों, चाहे शास्त्र सम्मत हिंदू (हिंदू धर्म, शास्त्र सम्मत एवं विधर्मी, परम्परावादी एवं आधुनिकतावादी, सबको अनुमति देता है तथा सबको स्वयं में विलीन कर लेता है) उससे सम्मत हो या ना हो, हिंदू धर्म एक गतिशील एवं सृजनशील धर्म-व्यवस्था है, गतिहीन नहीं। यह हिंदू धर्म एवं अधिकांश दूसरे विश्व धर्म-व्यवस्थाओं के बीच का मूल अंतर है।
हिंदू धर्म मुख्य रूप से गतिशील एवं सृजनशील है क्योंकि यह मूलतः एक आध्यात्मिक एवं रहस्यपूर्ण धर्म-व्यवस्था है।
एक आध्यात्मिक धर्म-व्यवस्था की परिभाषा के अनुसार उसे, आत्मा, जो मनुष्य में जीव है, का अनुसरण करना चाहिए। इसका विपरीत नहीं हो सकता जहाँ आत्मा को धर्म-व्यवस्था का अनुसरण करना पड़े। जो धर्म-व्यवस्था अपने को आत्मा से उच्च मानती है वह आध्यात्मिक नहीं है और वह एक बाह्य व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है। और जो धर्म-व्यवस्था आध्यात्मिक नहीं है वह निश्चित ही एक बाह्य स्वामित्व के अधीन हो जाती है (जैसे शास्त्र, पादरी या पंडित आदि के) और ऐसी व्यवस्था अपने अनुयायियों को स्वतंत्र आध्यात्मिक खोज एवं अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं देगी। कोई भी व्यक्ति अगर एक आध्यात्मिक ज्ञान, जो कि इस व्यवस्था की ईश्वर मीमांसा या धर्मस्थान संबंधी सीमा-प्रदेश से बाहर है, उसे विधर्मिक एवं तिरस्कारी माना जाएगा।
दूसरी ओर एक धार्मिक या गूढ़ धर्म-व्यवस्था में कोई भी ईश्वर मीमांसा या धर्मस्थान सम्बन्धी सीमाएँ मान्य नहीं हो सकती, वह स्पष्ट रूप से विचारानुचित एवं अंतर्विरोध है। सत्य की खोज में आत्मा निश्चित ही समस्त बाह्य रूपों एवं सूत्रिकरणों के परे और आगे जाएगी, क्योंकि जिस सत्य का अन्वेषण वह कर रही है, वह सत्य बुद्धि एवं मन की विशालतम और ज्ञानपूर्ण कल्पनाओं के अंत से भी परे एवं अनंत आगे है। इसीलिए चेतना के विकास के साथ साथ धर्म-व्यवस्था का भी विकास होना चाहिए।
जैसा की वेद एवं वेदांत व्यक्त करते हैं: सत बृहत है, सर्वदेश एवं सर्वकाल उसके अंदर धारित हैं तथा वह स्वयं देशकाल से उत्कृष्ट है, तथापि किसी एक कालावधि में निहित नहीं हो सकता, चाहे वह कालावधि कितनी भी विशाल या ब्रह्मांडीय क्यों ना हो। सत केवल बृहत् नहीं है, वह ब्रह्मांडीय एवं अतिब्रह्मांडीय भी है, सकल ब्रह्माण्ड उसके अंदर धारित है तथा वह स्वयं ब्रह्माण्ड से उत्कृष्ट है, इस लिए वह किसी भी एक मानव संप्रदाय, समाज, राष्ट्र या धर्म-व्यवस्था में निहित नहीं हो सकता। यह दावा करना कि एक विशेष समुदाय, आस्था या राष्ट्र इस सत को पूर्णतः धारण करता है ठीक वैसा ही है , जैसे सागर की एक लहर यह दावा करे की वह सागर को पूर्णतः धारण करती है।
हिंदू धर्म एक आध्यात्मिक एवं रहस्यपूर्ण धर्म-व्यवस्था है क्योंकि हिंदू विचार एवं धर्म का स्तोत्र नित्य एवं सदा जीवंत आत्मा का सत है ; और वह रहस्यपूर्ण है क्योंकि उसकी सकल ज्ञाननिधि और अभ्यास प्रक्रिया प्रत्यक्ष एवं अंतर्ज्ञात आध्यात्मिक एवं योगिक अनुभव पर आधारित है।
इसीलिए, अपने आध्यात्मिक एवं रहस्यपूर्ण मूलतत्व के आधार पर, हिंदू धर्म में भविष्य की मानवता की आवश्यकताओं एवं माँगों से संरेखित धर्म-व्यवस्था में विकसित होने की क्षमता है, और उसे इस कार्य को अवश्य ही सिद्ध करना चाहिए। उसे केवल प्रगतिशील ही नहीं परंतु मानवता की विकास प्रक्रिया को अतिगतिशील करने के लिए उग्र होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो हिंदू धर्म भी, विश्व की शेष धर्म-व्यवस्थाओं के समान शीघ्रता से अप्रचलित एवं अप्रासंगिक हो जाएगा, और कुछ पीढ़ियों के पश्चात मृत हो जाएगा।
गतिशील एवं प्रासंगिक बने रहने के लिए हिंदू धर्म को अपने मूलतत्व एवं आत्मा के प्रति निष्ठावान रहना होगा, और परिवर्तन एवं संशोधन के प्रति अनावृत रहना होगा, पूर्वकाल के रूपों और सूत्रिकरणों से आगे विकसित होने के लिए इच्छुक होना होगा, और अपने अनेक पुरातन सिद्धांतों, प्रथाओं एवं मान्यताओं का परित्याग करना होगा।
हिंदू धर्म को अपने सनातन मूलतत्व की रक्षा तथा उसे पुनः जीवंत करने की आवश्यकता होगी, उसका गहन एवं बृहत् वेदिक एवं वेदांत ज्ञान ; तथा उसे समान रूप से बृहत् विकासमूलक भविष्य तक पहुँचना होगा, जिसके बीजतत्व उसने अपने हृदय में गुप्तरूप से, अपने सर्वोच्च एवं अंतिम रहस्य के रूप में रखे हुए हैं – रहस्यम् उत्तमम्।
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