सनातन धर्म पर आधारित, मूल भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान की ओर
भारत में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक धारणाएँ परिवर्तित हो रही है – जिसके संकेत तथा लक्षण हर ओर हैं। उभरते एवं नूतन भारतवर्ष में एक ओर जहां वामपंथी एवं उदारवादी मानसिकता से जुड़ी कथाएँ एवं धारणाएँ अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं, वहीं दूसरी ओर पुन: स्थापनशील मूल भारतीय संस्कृति, और अधिक तीव्रता से सशक्त एवं विस्तृत हो रही है। प्रधानमंत्री मोदी का शासनकाल, भारतवर्ष का अपने राष्ट्रीय ताद्रूप्य एवं राष्ट्रीय व्यक्तित्व के लिए संघर्ष के ऐतिहासिक काल के रूप में स्मरणीय होगा। [1]
परंतु, संकेत चाहे जितने भी सकारात्मक एवं आश्वस्त करने वाले क्यों ना हों, हमारी यात्रा का दीर्घ भाग अभी शेष है और हमने अभी बस पृष्ठभाग ही खोला है।
वर्तमान में, मूल भारतीय संस्कृति पर आधारित, राष्ट्रीय एवं वैश्विक दृष्टिकोण के प्रतिनिधि दलों एवं व्यक्तियों को साथ आ कर, अपनी ऊर्जा, शक्ति और साधनों को एकत्रित करके, उन्हें कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। हमें एक केंद्रित कार्ययोजना की तथा उसे शीघ्र एवं प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने की आवश्यकता है।
मूलभूत दार्शनिक संरचना
कोई भी सामाजिक अथवा राजनीतिक आंदोलन बिना मूलभूत धार्मिक एवं दार्शनिक आधार के सफल नहीं हो सकता। किसी भी सांस्कृतिक अथवा राजनैतिक धारणा का निर्माण एवं स्थायीकरण एक आधारभूत वैश्विक दृष्टिकोण तथा मान्यताओं एवं सिद्धांतों के अभाव में नहीं हो सकता। अर्थात् एक दर्शन तथा एक धर्म की आवश्यकता सदा रहेगी।
प्राचीन काल से भारतवर्ष का दार्शनिक आधार सनातन धर्म था तथा सर्वदा रहेगा।
महाऋषि अरविंद के निर्णयात्मक शब्दों में — “ जब यह अभिव्यक्त किया जाता है की भारतवर्ष उदित होगा, तो वह सनातन धर्म ही है जो उदित होगा। जब यह अभिव्यक्त किया जाता है की भारतवर्ष भविष्य में महान होगा, तो वह सनातन धर्म है जो की महान होगा.. भारतवर्ष का अस्तित्व धर्म के लिए और धर्म के द्वारा ही है।
मेरा यह कथन है की सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रधर्म है। यह हिंदू राष्ट्र सनातन धर्म के साथ ही उत्पन्न हुआ था, उसके साथ ही यह गतिमान एवं विकासशील है। जब सनातन धर्म क्षीण होता है तब राष्ट्र भी क्षीण होता है, और यदि सनातन धर्म में स्वयं नाश का सामर्थ्य होता, तो उसके नाश के साथ भारत का भी नाश हो जाएगा। वह सनातन धर्म, स्वयं राष्ट्रधर्म है ” ।
भारत का, राष्ट्रीय ताद्रूप्य एवं राष्ट्रीय व्यक्तित्व का संघर्ष, आधारभूत स्तर पर, भारत का हिंदू धर्म के लिए संघर्ष है, जो कि उसके अस्तित्व का प्रमुख सिद्धांत है। भारतवर्ष को अपने हिंदुत्व [2] के मूल स्वभाव एवं स्वरूप को अवश्य ही पुनः धारण करना चाहिए और एक हिंदू राष्ट्र के रूप में विश्व के समस्त राष्ट्रों के मध्य अपनी मूल भूमिका का पालन करने के लिए पूर्ण आत्मविश्वास के साथ खड़ा रहना चाहिए। हिंदुत्व के अभाव में भारत निर्बल एवं भेद्य रहेगा।
वर्तमान के राजनीतिक परिवेश में हिंदुत्व एक अत्यंत ही भ्रांति युक्त एवं निन्दित शब्द है। इन भ्रांतियों को सुधारना आवश्यक है। हिंदुत्व हिन्दू होने का मूल तत्व है और इस मूल तत्व का बोध हमें तब तक नहीं हो सकता जब तक हमें सनातन हिंदू धर्म के दार्शनिक आधारों एवं तार्किक आधारों का बोध ना हो।
सनातन धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र का विचार, किसी भी प्रकार से धर्मनिरपेक्षता के विचार का उल्लंघन नहीं करता, जैसा की वामपंथियों-उदारपंथियों का मिथ्या विश्वास है तथा जिसका वह प्रचार भी करते हैं। यह मिथ्या एवं हानिकारक विश्वास केवल इस सरल तथ्य से उत्त्पन्न होता है कि उन्हें सनातन हिंदू धर्म का बोध ना तो है और ना ही वह इस बोध की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं।
सनातन धर्म, जो की हिंदुत्व का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक आधार है , अपने मूल स्वभाव में स्वयं ही धर्मनिरपेक्ष है। समस्त विभिन्न प्रकार की पद्धतियाँ, धर्म, दर्शन शास्त्र एवं विचारधाराएँ सनातन धर्म के सार्वलौकिक विस्तार में सम्मिलित हैं। कोई भी मनुष्यता से जुड़ी धारणा या पद्धति सनातन धर्म के क्षेत्र से बाहर नहीं है। यहाँ तक की सनातन ब्रह्मांडीय परिकल्पना में असुर एवं उसके अमंगलकारी कर्म का भी एक उचित स्थान निर्धारित है।
हमारे लिए तात्कालिक प्रश्न यह है कि राजनीतिक शक्तियों के असंतुलन की संरचना किए बिना सनातन धर्म को राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में कैसे लाया जाए। अगर हम राजनीति को सारे प्रपंच से बाहर रखें तो सनातन धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र के मार्ग में कोई चुनौती नहीं होगी। यह राजनीति है जिसने देश को धर्म आधारित , विरोधी समूहों में बाँटा है, संस्कृति या धर्म ने नहीं। और इसी कारण हमें धर्म के अराजनीतिकरण के द्वारा भारतीय समाज के इन धर्म आधारित विभाजनों का अंत करने की आवश्यकता है।
धर्म के अराजनीतिकरण का एक निश्चित उपाय धर्म को पुनः सशक्त एवं सबल करना है। धर्म के बलवर्धन के आधार पर ही भारत, एक पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में, एक उच्च एवं दृढ़ स्थान ग्रहण कर सकेगा, जहां विभिन्न संस्कृतियों एवं धर्मों को एक ईश्वर के लीलास्वरूप समान मान्यता प्राप्त होगी। धर्म के बलवर्धन के द्वारा ही हम, असहिष्णु दिव्य शक्तियाँ, अभ्रांत शास्त्र, उत्तम पैग़म्बर एवं उत्तम जन आदि, जैसी अपरिपक्व धारणाओं को ध्वस्त कर पाएँगे। असत्यता एवं अर्ध-सत्यों के विभिन्न रूपों का, उनके धार्मिक आवेशों में भी, युद्ध या प्रतिकार से नाश नहीं किया जा सकता, अपितु उनकी पूर्ण अप्रासंगिकता को सिद्ध करने से उनका नाश सहज ही हो जाएगा। यह ही धर्म का मूल स्वभाव है : जैसे जैसे धर्म के बल की वृद्धि होती है, वह असत्यता एवं अर्ध-सत्यों को पूर्णतः अप्रासंगिक बना देता है।
हमें एक बच्चे के हाथों से खिलौने को छीनने की आवश्यकता नहीं होती ; अगर हम बच्चे का ध्यान खिलौने की तुलना में अधिक वास्तविक एवं अर्थपूर्ण वस्तु की ओर आकर्षित करें तो खिलौना स्वतः ही अप्रासंगिक हो जाता है।
इसीलिए धर्म का बलवर्धन करने की आवश्यकता है। और कोई विकल्प नहीं है। धर्म का प्रवचन देते रहने से हम कहीं नहीं पहुँचेंगे। धर्म को जीवन में धारण करना होगा तभी यह एक प्रभावकारी शक्ति बनेगा। धर्म के ज्ञान का जीवन में धारण कर स्वयं धर्म स्वरूप होना होगा तथा धर्म का जीवन में निरंतर पालन करना होगा। धर्म की पूजा या धर्म के अनुसरण का कोई वास्तविक महत्व नहीं, केवल धर्म को जीवन में पूर्ण रूप से धारण करने का ही महत्व है। धर्म आस्था नहीं है – वह जीवन भुक्त ज्ञान है, वह क्रियान्वित सत्य है – जिसे वेदों में ऋतम् कहा गया है। भारत को इस सत्य के प्रति जागृत होना होगा। केवल उसके उपरांत ही भारत धर्म की महान शिला पर दृढ़ता से स्थिर राष्ट्र होने की अभीप्सा के सुयोग्य होगा।
सनातन धर्म को देश की चेतना के केंद्र में लाने के लिए, उसे भारतवर्ष का अग्रणी एवं उच्चतम आदर्श बनाने के लिए, कौन से कार्यों को तत्काल कार्यान्वित करना होगा ?
सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक अनिवार्य होगा कि धर्म को हम अपनी बुद्धि, हृदय एवं शरीर में धारण करें। जब तक यह कार्य संपन्न नहीं होगा, कुछ और सम्भव नहीं है। धर्म के महान गुरु इस प्रक्रिया को साधना के नाम से संबोधित करते थे – ज्ञान को जीवन के आधार में परिवर्तित करने की एक सघन व्यक्तिगत अनुशासित प्रक्रिया। एक के बाद एक व्यक्ति को यह साधना करने की आवश्यकता है। जैसे जैसे यह संख्या बढ़ेगी, देश के सूक्ष्म वातावरण में धर्म की वृद्धि होगी ; हर विरोधी प्रवृति का नाश करते हुए और समस्त बाधाओं का विघटन करते हुए, धर्म मंदगति एवं निश्चितता पूर्वक एक वृहद प्राकट्य में परिवर्तित हो जाएगा।
इस योजना को कार्यान्वित करने हेतु हमें तीन विशाल पद लेने होंगे:
प्रथम: पूर्वकाल के धर्म को पुनः प्राप्त करना होगा और उसे वर्तमान में जीवंत करना होगा ताकि वह सक्रिय रूप से भविष्य निर्माण का उत्तरदायित्व धारण करे।
द्वितीय: अपने शेष जीवन को पूर्णतः इस धर्म को जीवन में धारण करने के लिए समर्पित करना होगा ताकि हम व्यवस्थित ढंग से इसे पुनः प्राप्त करें और इसे अपने जीवन में शक्ति पूर्वक सक्रिय करें।
तृतीय: बाह्य व्यवस्थाओं एवं सहायक प्रणालियों का सृजन करना होगा, धर्म पे आधारित सामूहिक जीवन के निर्माण के द्वारा – जैसे, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौधिक एवं आध्यात्म आदि केंद्रित समूहों का निर्माण।
धर्म की पुनः प्राप्ति
स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में:
“ भारतमाता की संतानों , आज मैं आप से कुछ व्यावहारिक विषयों के संदर्भ में चर्चा करने आया हूँ, और आपको पूर्वकाल के यश का स्मरण करवाने का मेरा औचित्य केवल यह है। कई बार मुझे यह बताया गया है कि भूतकाल के अवलोकन से हम केवल पतित होते हैं तथा इसका कोई लाभ नहीं होता, और हमें केवल भविष्य की ओर देखना चाहिए। यह सत्य है। परंतु भूतकाल से ही भविष्यकाल का निर्माण होता है। इसलिए पीछे मुड़ो और जितनी दूर तक देख सकते हो, देखो, पूर्वकाल के उन सनातन स्रोतों को अपनी गहराई में प्रवेश करने दो, तत्पश्चात् भविष्य की ओर देखो, आगे बढ़ो, और भारतमाता को उज्ज्वल एवं महान बनाओ, पूर्वकाल के उच्च शिखर से कहीं अधिक ऊँचा और कही अधिक महान बनाओ। हमारे पूर्वज महान थे। सर्वप्रथम हमें इसका स्मरण करना चाहिए। हमें अपने व्यक्तित्व के मूलतत्वों का ज्ञान होना चाहिये, वह रक्त जो हमारी धमनियों में चलायमान है ; हमें उस रक्त में श्रद्धा होनी चाहिए और उसने पूर्वकाल में क्या सृजित एवं प्राप्त किया था, उस पूर्वकाल के यश की श्रद्धा एवं चेतना से, हमें महान भारत का पुनर्निर्माण करना चाहिए ताकि भारत पूर्वकाल की महानता से भी अधिक महान हो।
और इसके सामने हम श्री अरविंद के शब्द रखते हैं:
“… क्यों फिर भारतवर्ष विश्व की प्रथम शक्ति नहीं हो सकता ? और कौन है जिसके पास समस्त विश्व में आध्यात्मिक प्रभाव को विस्तारित करने का अविवादित अधिकार है ? यही था स्वामी विवेकानन्द की योजना का अभियान। भारतवर्ष में पुनः अपनी महानता का बोध जागृत किया जा सकता है अपनी आध्यात्मिकता के महानता के बोध के द्वारा। इसी महानता का बोध सकल राष्ट्रप्रेम का मुख्य पोषक है। केवल यही समस्त स्वावमूल्यन को समाप्त कर सकता है और भारत के खोए हुए स्थान की पुनः प्राप्ति की ज्वलंत इच्छा की उत्पत्ति कर सकता है। ”
तथा हमारे पास एक सटीक कार्य योजना है, हर उस व्यक्ति के लिए, जिसमें धर्म की पुनः प्राप्ति और स्वयं के अन्तर में उसे जीने की अभीप्सा है – जिन गहनताओं एवं ऊँचाइयों को हम पीढ़ी दर पीढ़ी खो चुके हैं , इनकी पुनः प्राप्ति करें ; हमारे पूर्वकाल , धरोहर एवं संस्कृति का अधिक गहनता से आत्मसात् करें, तथा उसे वर्तमान में पुनः जीवंत करें। हमें उसे एक शक्ति का स्वरूप देना है ताकि वह हमारे भविष्य का निर्माण कर सके। यह तब होगा जब हम भारतवासी , हमारे स्वयं की गहनता में ज्ञान और तपस्या की उस शक्ति एवं ज्योति को जागृत करें जो कि हमारे राष्ट्र की आत्मा में नित्य सनातन धर्म के रूप में वास करती है।
यह उद्देश्य विलक्षण एवं निरंतर व्यक्तिगत प्रतिबद्धता एवं प्रयास की माँग करेगा।
प्रसार
इस कार्ययोजना का आगामी पद होगा धर्म का प्रसार। उन सब को, जो कि बुद्धि एवं आत्मा में धर्म के लिए तैयार हैं, सनातन धर्म को सरलता से समझाना एवं उसके सम्बंध में उनसे संवाद करना होगा । सनातन धर्म के बारे में प्रसिद्ध मान्यता है कि वह अत्यधिक गुप्त है, दार्शनिक अथवा रहस्यमयी है। इस कारण से जनसाधारण के लिए उसे समझना या उसका अनुसरण करना कठिन है। यह कदाचित सत्य है, क्योंकि सनातन धर्म निशचित रूप से गूढ़ एवं सूक्ष्म है। और इसके कारण सनातन धर्म पूर्वकाल से सांस्कृतिक एवं बौधिक अभिजात वर्ग तक ही सीमित रहा है, जिसके फलस्वरूप समय के साथ-साथ धर्म पर दुर्भाग्यपूर्णता से ब्राह्मण जाति का प्रभाव अत्यधिक हुआ। और इसी प्रभाव के फलस्वरूप बौद्ध-धर्म की सुधारात्मक प्रतिक्रिया का जन्म हुआ।
हमें इस दोष को तत्काल एवं शक्तिपूर्ण रूप से शुद्ध करना है।
सर्वप्रथम हमें एक प्रबुद्ध मंडल की रचना करनी होगी। धर्म को जीने वाले उच्चतम क्षमताधारी बुद्धिजीवीयों एवं साधकों के एक केंद्रीय मंडल की रचना करनी होगी, ऐसे व्यक्ति जो स्वयं साक्षात धर्म का आचरण स्वरूप हों और जो आचार्य की भूमिका निभाने के योग्य हों। इनका चुनाव परिश्रमपूर्वक तथा राजनैतिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव से अप्रभावित रह कर करना होगा। निर्विवाद निर्णय एवं विवेक शक्ति और निर्विवाद आचरण करने वाले कुछ व्यक्तियों को साथ लाना होगा। इसे कार्यान्वित करने का कोई सरल मार्ग संभव नहीं होगा। पर कार्य चाहे जितना भी चुनौतीपूर्ण हो, किसी भी प्रकार का समझौता या मध्यमार्ग स्वीकृत नहीं होगा। सर्वोच्च मापदंडों एवं सत्यनिष्ठा का पालन करना होगा।
इस प्रबुद्ध मंडल या केंद्रीय मंडल को सनातन धर्म के प्रसार एवं उसकी व्याख्या का कार्यभार सम्भालना होगा , उसके मूलतत्व को मंद या विकृत किए बिना। इस मंडल को ना केवल धर्म के दर्शन का सम्पूर्ण ज्ञान होना चाहिये बल्कि उसके साथ-साथ धर्म के क्रियान्वयन के व्यावहारिक मनोविज्ञान का बोध भी होना चाहिये , लोक लुभावनवाद एवं उत्कृष्ट वर्गवाद को पूर्णतः अस्वीकृत करना होगा। धर्म को एक व्यापक व्यावहारिक एवं उपयोगी जीवन मार्ग के रूप में देखना अति महत्वपूर्ण होना चाहिए।
प्रसार के साधन
प्रथम: सनातन धर्म की मूल अवधारणाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए विभिन्न प्रारूपों में साहित्य का प्रकाशन।
द्वितीय: युवाओं के लिए सनातन विषयों एवं विचारों पर आधारित कार्यशालाएँ, उच्च पाठशाला से लेकर विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए, युवा वृत्तिक एवं व्यवसायियों एवं अध्यापकों के लिए अध्ययन गोष्ठी एवं कार्यशालाओं का आयोजन। अध्यापकों के लिए विशेष कार्यशालाएँ – विभिन्न संदर्भों में विद्यार्थियों को सनातन धर्म का बोध कैसे कराया जाए , अध्यापक इस कार्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होंगे। जो अध्यापक इस कार्य का उत्तरदायित्व लेने हेतु तैयार हों, उनके लिए एक प्रखर पाठ्यक्रम सरलता से तैयार किया का सकता है।
तृतीय: बहुमाध्यमिक प्रारूप – चलचित्र ( cinema), ऑनलाइन ( online), यूट्यूब ( YouTube) आदि माध्यमों का धर्म के प्रसार एवं संचार के लिए व्यापक प्रयोग करना होगा। अनेक, अत्यधिक सृजनात्मक व्यक्ति वर्तमान में इस कार्य को कर रहे हैं, उन सब को एक मंच पर एकत्रित करना होगा।
चतुर्थ: सोशल मीडिया ( social media) का भी व्यापक एवं गहन प्रयोग करना होगा ; सोशल मीडिया के द्वारा केंद्रित एवं अनुशासित प्रसार, संप्रेषण के लिए अत्यंत आवश्यक होगा। अगर हमें युवा पीढ़ी को जागृत करना है, तो हमें सोशल मीडिया की भाषा में महारत प्राप्त करनी होगी। तथापि, जो लोग सोशल मीडिया का संचालन करेंगे उनका अवश्य ही तत्परतापूर्वक चयन, प्रशिक्षण एवं सहयोग करना होगा। ऑनलाइन अध्ययन गोष्ठियाँ, संक्षिप्त बातचीत , विषय केंद्रित साक्षात्कार , टेड-एक्स ( Ted-X ) की तरह विषय केंद्रित व्याख्यान आदि का निरंतर प्रसार देशभर में होना चाहिए।
पंचम: इन्फ़ार्मेशन टेक्नॉलजी ( information technology) का व्यापक प्रयोग करना होगा , वर्तमान में विश्व इन्फ़ार्मेशन टेक्नॉलजी की ओर अत्यधिक निर्णयात्मक ढंग से अग्रसर हो रहा है। हमें नवीन विचारों और प्रक्रियाओं की रचना करनी होगी, संदेश को समुचित रूप से प्रसारित करने के लिए नये और प्रेरक मार्गों की रचना करनी होगी।
अपनी कार्यनीति का निर्माण करते हुए हमें इन अति आवश्यक विषयों का पूर्णतः ध्यान रखना होगा:
प्रथम: युवा हमारे कार्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। भारत एक युवा देश है, हमारी पचास प्रतिशत जनसंख्या पैंतीस वर्ष की आयु से कम है। युवाओं को मार्गदर्शन एवं निर्देशन की आवश्यकता है। यह विशेष रूप से असुरक्षित एवं प्रभाव्य हैं, किसी भी विश्वसनीय आख्यान से प्रभावित हो सकते हैं। सनातन आख्यान निश्चय ही उन तक प्रभावी रूप से पहुँचना चाहिए।
द्वितीय: हमारे पास यह कार्य करने के लिए दीर्घ काल का समय नहीं है। हमें युवाओं तक आवश्यक रूप से पहुँचना है, परंतु हमें इस कार्य को एक निश्चित समय सीमा तक पूर्ण करना है, और इस समय सीमा का कड़ाई से पालन होना चाहिए।
तृतीय: युवा पीढ़ी के किए हमें अवश्य ही “ सही प्रस्तुतीकरण ” करना होगा। सही भाषा का प्रयोग आवश्यक होगा। युवा पीढ़ी “ युवा ” भाषा को प्रतिक्रिया देती है, युवा दार्शनिक अथवा शैक्षिक भाषा को कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे ; ना ही वह किसी उपदेशक अथवा अध्यापक को कोई प्रतिक्रिया देंगे। वह उन प्रखर युवाओं को प्रतिक्रिया देंगे जो कि उनकी भाषा में बात करते हैं तथा उनके मुद्दों को संबोधित करते हैं। क्या हम सनातन धर्म के सत्यों और अवधारणाओं को समकालीन उत्तर आधुनिक भाषा में प्रस्तुत कर सकते हैं जो की गम्भीर विचारधारा ना हो और जो कर्मकाण्ड से पूर्णतः मुक्त हो ?
चतुर्थ: संभव है के हमें “ सनातन धर्म ” के स्थान पर कोई और पारिभाषिक शब्द या शब्दों का प्रयोग करना पड़े, जो की वर्तमानकाल के समकालीन एवं अनुकूल हो। इस कार्य के लिए, आंदोलन को सार्वजनिक क्षेत्र में ले जाने से पूर्व, बहुत सावधानी से विचार करना होगा। “ धर्म ” शब्द यद्यपि , हमारे लिए चाहे जितना भी प्रभावी हो, युवा पीढ़ी की समझ के अनुसार उसके अंदर पूर्वकाल के रूढ़िवादी सांस्कृतिक एवं धार्मिक अर्थ हैं, हमें इस सत्य को स्वीकृत करने के लिए तैयार रहना होगा। सम्भवतः हमें अनेकों बौधिक एवं सांस्कृतिक प्रतीकों का त्याग करना पड़े। शब्दावली यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है, उचित अर्थ का संप्रेषण महत्वपूर्ण है। क्या धर्म की मूल शब्दावली को और भी वैज्ञानिक एवं समकालीन रूप दिया जा सकता है, ताकि युवा पीढ़ी के भीतर एक जीवंत प्रतिक्रिया का संचार किया जा सके ?
अगर हम विचार करें कि कैसे बौद्ध धर्म पश्चिमी देशों में इतना लोकप्रिय हो गया, और युवा पीढ़ी के मध्य भी – बौद्ध धर्म के कुछ आचार्य अपने धर्म को स्पष्ट तथा सटीक परिभाषित एवं विचारोत्तेजक भाषा में प्रस्तुत करने में सफल हुए। वह भाषा जो कि आधुनिक बुद्धि को भी उतनी ही आकर्षित करती है जितना कि भावनाओं को।
हमें उस बुद्धि का आह्वान करना है जो साधारण बुद्धि से उच्च है, और हमें प्राणशक्ति का आह्वान करना है, जिसमें हमारी जीवन शक्ति एवं भावना शक्ति वास करती है। बुद्धि के दिशानिर्देश के बिना प्राणशक्ति सरलता से आक्रामकता एवं लम्पटवाद के मार्ग पर अग्रसर हो सकती है ; प्राणशक्ति के अभाव में बुद्धि सरलता से विषयों के केवल बौद्धिकरण एवं अप्रभावी एकांतवाद के मार्ग पर अग्रसर हो सकती है। समकालीन भारत में हमने इन दोनो की चरम सीमाओं का अनुभव किया है और हमें सतर्कता एवं सावधानी से दोनो से बचना होगा।
सनातन धर्म विश्वविद्यालय – एक आद्यरूप
शिक्षा को, सनातन धर्म के अत्यधिक प्रभावी सशक्तिकरण एवं विस्तार के लिए, सबसे महत्वपूर्ण साधन के रूप में उपयोग करना होगा। सनातन धर्म एवं मानव चेतना के क्षेत्र में प्रगतिशील अनुसंधान एवं अध्ययन, विचार एवं ज्ञान का सतत विकास करना होगा।
प्रसार की प्रक्रिया के आरम्भ होने के उपरांत विश्वविद्यालय की स्थापना हमारा प्रथम महत्वपूर्ण कार्य होना चाहिए। यह विश्वविद्यालय, धार्मिक शिक्षा प्रणाली का एक प्रारूप होगा, उपनिषदिक गुरुकुल का आधुनिक रूप , और अवश्य ही विश्व स्तर का होना चाहिए।अध्यापकों , विद्यार्थिओं और विषयों में विश्व में सबसे अग्रणी होना चाहिए। ईंट व पत्थर से निर्मित सम्पूर्ण विश्वविद्यालय की स्थापना में निश्चय ही अत्यधिक समय की आवश्यकता होगी: परंतु हमें यह समझ कर चलना होगा कि शिक्षा प्रणाली का अत्यधिक तीव्रता से डिजिटलीकरण ( digitization) हो रहा है। भविष्य का गुरुकुल-विश्वविद्यालय, अगर एक तय भूमि पर स्थित भी हो , फिर भी उसके अधिकांश पाठ्यक्रम ऑनलाइन माध्यम से ही उपलब्ध होंगे। कोरोना महामारी के उपरांत यह प्रवृति और भी अधिक सक्रिय हो जाएगी। केवल वही गहन पाठ्यक्रम जिनके लिए गुरु या आचार्य की साक्षात उपस्थिति अनिवार्य होगी, उनका आयोजन ही अनिवार्य रूप से गुरुकुल के परिसर में किया जाएगा।
महर्षि अरविंद ने भारत की मूल सभ्यता के पुनरुत्थान के लिए जिस कार्य को करना होगा, उसकी व्याख्या करते हुए कहा था:
“ पूर्वकाल के आध्यात्मिक ज्ञान व अनुभव की पूर्ण भव्यता, गहनता एवं परिपूर्णता की पुनः प्राप्ति , भारत का सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। इस आध्यात्मिक शक्ति का प्रवाह दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान एवं आलोचनात्मक ज्ञानादि के नवीन स्वरूपों में, द्वितीय कार्य है। तथा भारतीय स्वभाव एवं मनोवृत्ति के प्रकाश में, आधुनिक समस्याओं के साथ मूलतः नवीन व्यवहार और आध्यात्मिक समाज के महान समन्वय के निर्माण का प्रयास, तृतीय एवं अधिकतम कठिन कार्य है। इन तीन कार्य क्षेत्रों में सफलता, उसकी मानवता के भविष्य की ओर उन्नति में सहयोग का माप होगी। ”
यहाँ महर्षि अरविंद ने तीन भागों पर बल दिया है:
– पूर्वकाल के आध्यात्मिक ज्ञान व अनुभव की पूर्ण भव्यता, गहनता एवं परिपूर्णता की पुनः प्राप्ति।
– इस आध्यात्मिक शक्ति का प्रवाह – दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान एवं महत्वपूर्ण ज्ञान के नवीन स्वरूपों में।
– भारतीय स्वभाव एवं मनोवृत्ति के प्रकाश में आधुनिक समस्याओं के साथ मूलतः नवीन व्यवहार और आध्यात्मिक समाज के महान समन्वय के निर्माण का प्रयास।
यह तीन भाग ही आवश्यक रूप से विश्वविद्यालय के पाठ्यकर्म का मूल ढाँचा एवं आधार होने चाहिए – भारत के आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभव की पुनः प्राप्ति एवं नवीन स्वरूपों में उनका प्रवाह , और आधुनिक विश्व में उनका उपयोग। पूरे विश्व में ऐसा कोई भी विश्वविद्यालय नहीं है जो इस आदर्श के कहीं निकट भी आता हो। भविष्यकाल के भारत का निर्माण करने के लिए, यही सर्वश्रेष्ठ मूल ढाँचा एवं आधार है। इस ढाँचे पर आधारित, विश्वविद्यालय की कार्यावली पूर्णतः स्पष्ट होगी:
प्रथम: सनातन धर्म, मानव चित्त एवं विकासमूलक अध्यात्म और समकालीन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में योगसाधनाओं के क्षेत्र में विश्व स्तर के शोध को प्रोत्साहित करना।
द्वितीय: सनातन धर्म के अध्यन एवं प्रसार हेतु सहयोगी वातावरण , माध्यम एवं मंच उपलब्ध कराना। इस में आवश्यक रूप से संचार प्रौद्योगिकी ( websites), सोशल मीडिया , बहुमाध्यमिक एवं चलचित्र, ऑनलाइन एवं मुद्रित प्रकाशन सम्मिलित होने चाहिए।
तृतीय: सनातन धर्म, विकासमूलक अध्यात्म तथा योग के क्षेत्र में राष्ट्रीय एवं वैश्विक केंद्र बनना।
चतुर्थ: योग एवं आयुर्वेद पर आधारित पूर्ण स्वास्थ्य ( integral health) के क्षेत्र में शोध एवं अध्ययन के केन्द्र का निर्माण। जहा पर इस प्रकार की स्वास्थ्य व्यवस्था और देखभाल जनसाधारण को भी उपलब्ध होगी।
पंचम: धार्मिक एवं चेतना प्रधान विश्वावलोकन पर आधारित – प्रबंधन एवं नेतृत्व , अर्थशास्त्र , विज्ञान , पूर्ण एवं भारतीय मनोविज्ञान, प्राकृतिक वातावरण एवं पर्यावरण, इतिहास एवं राजनीति आदि विविध प्रकार के क्षेत्रों में अध्ययन एवं शोध के लिए विद्या केंद्रों की स्थापना।
पाठ्यकर्मों के अलावा, जो अधिकतर ऑनलाइन चलेंगे , उनके साथ-साथ विश्वविद्यालय की मूल कार्यावली को सुदृढ़ करने के लिए सम्बद्ध गतिविधियों का भी प्रावधान करना होगा।
प्रथम: सभी विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में – जहां भी लोग तैयार और इच्छुक हों, वहां पूर्ण विस्तार पूर्वक, युवाओं के लिए शिविरों, अध्यापन गोष्ठियों एवं कार्यशालाओं का आयोजन।
द्वितीय: युवाओं के मध्य प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने हेतु – प्रेरणादायक, चुनौतीपूर्ण एवं सुदृढ़ कार्यक्रम का निर्माण। इस कार्यक्रम का विकास एवं कार्यान्वयन प्रबुद्ध विचारकों एवं प्रभावी संचारकों के द्वारा होना चाहिए। विद्वान, दार्शनिक, सामाजिक एवं धार्मिक विचारक, वैज्ञानिक, व्यवसाय एवं निगमित प्रतिनिधियों को इस प्रयास में सम्मिलित करना चाहिए, ताकि जो कार्यक्रम विकसित हों वह सम्पन्न, विभिन्न, बहु-विषयक और बहुमुखी हों।
तृतीय: इस विश्वविद्यालय को विद्यालयों एवं अन्य विश्वविद्यालयों से निकट एवं निरंतर समन्वय बना कर रखना होगा ताकि इस कार्यक्रम के लिए सहमति सुनिश्चित हो सके। ऐसा कार्यक्रम बिलकुल भी प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हो सकता , वह आवश्यक रूप से सहयोगपूर्ण ही होना चाहिए।
चतुर्थ: युवाओं के लिए कार्यक्रम के समांतर – वृत्तिकों , वैज्ञानिकों, निगमित कार्यपालकों , व्यावसायिक प्रधानों के मध्य में धर्म के प्रसार के लिए एवं मीडिया के माध्यम से, सारे देश में धर्म के प्रसार के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण एवं सुदृढ़ कार्यक्रम अवश्य होना चाहिए। हमारे संदेश के अधिकतम विस्तार के लिए यह आवश्यक रूप से उत्तम कार्यक्रम होना चाहिए जिसके अंदर देशभर के विभिन्न शिक्षक एवं शिक्षार्थी सम्मिलित होंगे।
पंचम: विश्वविद्यालय को विभिन्न संभावित हितधारकों से संपर्क बनाने की आवश्यकता होगी – लेखक , दार्शनिक , विचारक एवं सामाज के प्रभावी व्यक्ति, धार्मिक आचार्य एवं गुरुजन, राजनीतिक कार्यकर्ता एवं नेतागण और मीडिया कर्मी, जो कि समाज के विशाल भागों को प्रभावित कर सकते हैं, ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता होगी। हमें एक मंच पर, धार्मिक हित से जुड़े, सभी संभव प्रभावशाली व्यक्तियों एवं समर्थकों को एकत्रित करना होगा।
व्यापक जनसंख्या से जुड़ने की प्रक्रिया में, निस्संदेह ही हम अनेक ऐसे व्यक्तियों से मिलेंगे जो पहले से ही अपनी मान्यताओं एवं धारणाओं से दृढ़तापूर्वक जुड़े हुए हैं, बहुधा यह व्यक्ति सनातन विचारधारा के विरोधी या फिर सनातन विचारधारा के प्रति शत्रुता रखने वाले भी हो सकते हैं। हमें कभी भी ऐसे व्यक्तियों से मुख नहीं मोड़ना चाहिए, क्योंकि किसी की भी उपेक्षा करके उसे दूर नहीं किया जा सकता। तर्क-वितर्क एवं संवाद के लिए सदा स्थान होना चाहिए। वास्तविकता में धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक समाज को अवश्य ही सर्वदा मतभेद एवं संवाद के प्रति सहनशील होना चाहिए, सभी भिन्न विशावलोकनों, विचारों एवं मान्यताओं के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टि रखनी चाहिए तथा असहमति प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए।
मान्यताओं एवं विचारों की कठोरता, असहिष्णुता एवं प्रभुत्ववादी प्रवृतियों के लिए एक धार्मिक समाज में कोई स्थान या प्रासंगिकता नहीं है। धार्मिक संभाषण एवं आख्यान राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पक्षपात से परे होना चाहिए। धर्म राजनीति को प्रेरित कर सकता है, उसे नेतृत्व प्रदान कर सकता है, किन्तु किसी भी परिस्थिति में धर्म, राजनीति या राजनीतिक लक्ष्यों का सेवक नहीं बन सकता।
अर्थशक्ति का उत्पादन
धर्म एवं अर्थ, सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार चार पुरुषार्थों में दो पुरुषार्थ हैं। धर्म को सहायता प्रदान करने के लिए, हमें अर्थ की भी आवश्यकता होती है। हमें सब सम-विचारक एवं सम-आत्मिक व्यक्तियों को एकत्रित करना होगा और धर्म को शक्ति प्रदान करने के लिए अर्थ शक्ति का निर्माण करना होगा। यह कार्य अवश्य ही किया जा सकता है और इसे करना ही होगा।
अर्थ शक्ति के साधन
धर्मांश अर्थ शक्ति के निर्माण के लिए एक शक्तिशाली साधन हो सकता है। धर्मांश का तात्पर्य है की हर सनातन विचारधारा का व्यक्ति अपनी आय एवं धन का एक तय प्रतिशत नियमित तौर पर धार्मिक कार्य के लिए दान करे। यदि हम सब अपनी आय का एक से पाँच प्रतिशत अंश भी धार्मिक कार्य के लिए दान करते हैं तो हम इस कार्य की प्रगति के लिए पर्याप्त सम्पदा एकत्रित कर लेंगे। ऐसा अंशदान मुस्लिम एवं ईसाई समाज के सदस्यों द्वारा नियमित रूप से किया जाता है। ईसाई समाज में इसे टाइध ( tithe) कहते है, अर्थात् अपनी आय के दस प्रतिशत भाग का धार्मिक कार्यों के लिए अंशदान।
व्यावसायिक एवं निगमित क्षेत्र के अग्रणी धर्मरत जन , आर्थिक संसाधनों एवं प्रतिभाशाली व्यक्तियों का एक शक्तिशाली संघ बना सकते हैं, और धार्मिक कार्य के निधिकरण के लिए एक निधि का निर्माण कर सकते हैं। वह इस संघ की व्यवस्था के द्वारा व्यवसाय की विभिन्न संभावनाओं का भी निर्माण कर सकते हैं और संघ से जुड़े सभी व्यवसायों के लिए अर्थशक्ति का उत्पादन कर सकते हैं। यह संघ फिर प्रत्यक्ष रूप से धार्मिक कार्य में सहयोग कर सकता है। यह इस्लाम की हलाल अर्थव्यवस्था के समरूप होगा जोकि इस्लाम के लिए अरबों डॉलर का उत्पादन करती है।
जन समुदाय से अल्पदान माँगने की प्रक्रिया ( crowd sourcing ) भी धनशक्ति के उत्पादन का एक और साधन हो सकती है। धार्मिक आंदोलन में सहयोग करने के इच्छुक कई व्यक्ति एवं समूह निश्चित रूप से मिलेंगे। एक स्पष्ट दिशा एवं एक पारदर्शी कार्ययोजना इस कार्य के लिए पर्याप्त होगी। जन समुदाय की दृढ़ शक्ति असाधारण सिद्ध हो सकती है। हमें केवल विस्तारपूर्वक संपर्क स्थापित करना है और अपनी बात को व्यक्त करना है।
मुख्य विचारों की पुनरावृत्ति
- सनातन धर्म का संदेश युवाओं तक अवश्य पहुँचना चाहिए अगर हम सभ्यताओं के इस युद्ध में विजय प्राप्ति की कामना करते हैं। परंतु हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा कार्यक्रम आक्रामक व न्यूनकारी “ प्रचारकों ” के हाथों में ना चला जाए , जो कि सनातन धर्म और हिंदू धर्म को धार्मिक संस्कारों एवं नियमों में बांधने में ही प्रसन्न रहते हैं।
- सनातन धर्म अत्यधिक एकीकृत एवं पूर्णता से जीवन जीने के मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो कि एक ही समय पर सूक्ष्म भी है और जटिल भी है। इसे सरल प्रकार के नियमों और अनुष्ठान में परिवर्तित कर एक और रूढ़िवादी धर्म बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जिस क्षण सनातन धर्म को रूढ़िवादी प्रथाओं और अनुष्ठानों में परिवर्तित कर दिया जाएगा , उसी क्षण वह विश्व के अन्य धर्मों के स्थान पर आ जाएगा। यह किसी भी परिस्थिति में नहीं होने देना चाहिए। सनातन धर्म स्वयं जीवन है , वह पूर्ण एवं विकासशील है , और इसे इसी रूप में जानना एवं देखना चाहिए।
- सनातन धर्म तथा हिंदू धर्म में गहन प्रतिकात्मकताएं समायोजित हैं। हम में इस प्रतीकात्मकता को बिना अधिक सरल बनाए या बिना उसकी गूढ़ता कम किए समझाने की क्षमता होनी चाहिए। इस कार्य के लिए बहुत सचेत बौधिक पथ प्रदर्शित करने की क्षमता की आवश्यकता होगी।
बौधिक अभिजात वर्ग के लोग जिस एक महत्वपूर्ण कारण से हिंदू सनातन धर्म से सावधान एवं दूर रहते हैं, वह कारण इसके जटिल एवं गहन प्रतीकवाद को जनसाधारण को समझाने में आने वाली निरी कठिनाई है। सरलीकरण का तात्पर्य वास्तविक अर्थ को कम करना नहीं होना चाहिए।
- सनातन धर्म का यह कार्य विशाल एवं गहन है, यह किसी एक व्यक्ति या समूह के द्वारा नहीं किया जा सकता, सभी को इस विशाल यज्ञ के लिए एकत्रित होना चाहिए ; धर्म के लिए यह त्याग आवश्यक है। हर एक व्यक्ति आवश्यक है, और सब को अपना उच्चतम एवं श्रेष्ठतम योगदान देना होगा। यह कार्य सर्वसहयोगी एवं एकीकरण वाला होना चाहिए – यहाँ दाँव बहुत उच्च है और समय तीव्रता से निकल रहा है।
सनातन धर्म क्या नहीं है
प्रथम: सनातन धर्म एक सीमित एवं स्थापित प्रणाली पर आधारित धर्म नहीं है ; सनातन धर्म का कोई सर्वोच्च पुरोहितवर्ग या गुरुवर्ग नहीं है, कोई केंद्रित प्राधिकरण नहीं है, धर्म की व्याख्या या धर्मसंगत जीवन क्या है, यह निर्धारित करने के लिए कोई अंतिम मध्यस्थ नहीं है, कोई एक सबसे महान शास्त्र नहीं है, कोई धर्मशास्र नहीं है।
द्वितीय: धर्म का अर्थ आंग्ल भाषा के शब्द रेलिजन ( religion) से भिन्न है ; यह शब्द संस्कृत में ‘ धृ ’ धातु से उत्पत्त किया गया है ; ‘ धृ ’ का अर्थ है धारण करना या बांधना (स्थिर करना या शक्ति देना). [3] इसलिए धर्म वह सब है जो धारण करता है या एक साथ बांधता है, स्थिरता लाता है या शक्ति देता है ; धर्म को व्यापक रूप से सामंजस्य के आधार के समान माना जाता है, जिसके अभाव में एक वस्तु या व्यक्ति का अव्यवस्था में पतन हो जाता है। इसी कारण यह सूक्ष्म है और रिलिजस मानस ( religious mind) की पकड़ से बहुत दूर है।
तृतीय: सनातन धर्म का संस्कारों और अनुष्ठानों से कोई सम्बंध नहीं है। सनातन धर्म की दिनचर्या में जिन भी अनुष्ठानों का प्रावधान है वह सब अत्यधिक प्रतीकात्मक हैं। उदाहरणार्थ, यज्ञ – यज्ञ प्रक्रिया प्रतीकात्मक एवं लाक्षणिक है, अग्नि भी प्रतीकात्मक है, और आहुति एवं यज्ञसामग्री भी और पुरोहित स्वयं प्रतीकात्मक है।
चतुर्थ: वह नैतिक एवं धार्मिक व्यवहार के लिए अनिवार्य या विहित नियमों का संग्रह नहीं है। धर्म के अनुसार कुछ भी पूर्णतः उचित या पूर्णतः अनुचित नहीं है, सब कुछ सापेक्ष एवं प्रासंगिक है। उचित और अनुचित की यह समझ हमारे अंतरतम अस्तित्व (आत्मा) से या फिर हमारी बुद्धि से आनी चाहिए। इसीलिए सनातन परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण साधना अपनी आत्मा एवं बुद्धि, जो की अनिवार्य रूप से विवेकयुक्त है, को विकसित करना है।
पंचम: सनातन धर्म हमें यह नहीं बताता कि – हमें क्या खाना है और क्या नहीं, कौन से वस्त्र धारण करने हैं कौन से नहीं, कैसे अपना जीवन जीना है और कैसे व्यवहार करना है। सनातन धर्म के लिए, आध्यात्मिक , सामाजिक एवं नैतिक रूप से हमारी चेतना का विकास ही एकमात्र महत्वपूर्ण विषय है। नैतिक एवं सामाजिक नियमों एवं विधियों के एक संग्रह की तुलना में चेतना की ऊँचाई एवं गहराई अतुलनीय रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
षष्ठ: सनातन धर्म वेद, भागवत गीता या उपनिषद नहीं है, ना ही वह महाभारत या रामायण है, ना वह पुराण ही है – यह शास्त्र या ग्रंथ, धर्म को परिभाषित या सीमित नहीं करते हैं। तथापि यह शास्त्र बुद्धि को धर्म के साथ संरेखित करते है, धर्म को मानवता के मानसिक एवं प्राणमय व्यवहार के लिए अधिक उपलब्ध कराते है। उदाहरण स्वरूप, जो व्यक्ति धर्मयुक्त जीवन जीने का अभिलाषी है, उसके लिए – वेदों, गीता और उपनिषदों का गहन ज्ञान, अत्यधिक महत्वपूर्ण हो सकता है, परंतु यह शास्त्र धर्म के एकमात्र श्रोत या मार्गदर्शक नहीं हैं।
धर्म का परम स्रोत और उसका एकमात्र अचूक मार्गदर्शक , हमारी आत्मा के अंत: में स्थापित नित्य एवं अनंत ज्ञान ही है और प्रत्येक चेतनव्यक्ति के अंतर् में विराजमान – वह गुप्त वेद है।[4] यह ही सनातन धर्म का एकमात्र भव्य शास्त्र एवं मंदिर है। इसीलिए आत्मा काअनुसंधान सनातन धर्म की एकमात्र परम आवश्यक साधना है – और सब माध्यमिक या परिधीय रुचि के विषय हैं।
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