१ हे आकर्षक वायु! कृपया आगमन करें। सोम परिष्कृत व प्रस्तुत है आपके लिए। इसका पान करें, हमारा आवाहन सुनें।
२ हे वायु! अपने उच्चारण से तुम्हारे अनुरागी तुम्हारी प्रशंसा करते हुए तुम्हारी ओर आमुख होते हैं। वे सोम परिमार्जित करने वाले और प्रकाश के ज्ञानी तुम्हारी स्तुति करते हैं।
३ हे वायु! तुम्हारी पूर्ण वाक् शक्ति की धारा दायक की ओर गतिमान होती है और सोमपान करने के लिए बृहद होती है।
४ हे इंद्र- वायु! यह सोम प्रस्तुत है तुम्हारे हेतु। अपने वर्द्धक उपहारों के संग आगमन करें। आनंददायक सोम आपकी अभिलाषा करते है।
५ हे इंद्र- वायु! जिनके पास विपुलता है, सोम की चेतना से परिपूर्ण हो आवें, आप दोनों वेग से हमारी ओर आगमन करें।
६ हे इंद्र- वायु! सोम पवित्र व उत्पन्न करने वाला तत्पर है आपके लिए उत्तम उपहार लिए। हे नेतृत्व के देव, उचित विज्ञान के संग।
७ मैं पवित्र विवेक वाले मित्र का आवाहन करता हूँ और वरुण जो शत्रु का विनाश करते हैं। जो एक संग स्पष्ट व आलोकित विज्ञान सिद्ध करते हैं।
८ सत्य से मित्र- वरुण, सत्य- वर्धन और सत्य से सम्बन्ध स्थापित करते हैं। और विराट इच्छाशक्ति की रसानुभूति करते हैं।
९ मित्र- वरुण कवि हैं हमारे लिए, दूरदृष्टा, जिनका कई प्रकार और रूपों में जन्म होता है, जो बृहद में निवास करते हैं, वे शक्ति को धारण करते हैं जो सभी कार्य सिद्ध करती हैं।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम सूक्त में अग्नि के प्रज्ज्वलन व आवाहन का वर्णन है। प्रतीकात्मक रूप में यह योगसाधना व तपस्या का विवरण है। इस अग्नि- साधना से विभिन्न क्रियाओं द्वारा सोम या आनंद उत्पन्न होता है। इस सोम का अनुभव जब वायु ( प्राणशक्ति) को होता है तो ऋषि या योगी के जीवन में आमूल परिवर्तन आ जाता है। अतः पहले सूक्त के चरण के पश्चात् अब ऋषि वायु का आवाहन करते हैं जिससे उनके प्राण का रूपांतरण हो। वायु एक बार आनंद का आस्वादन कर लें तो उन्हें तुच्छ वासनाओं से विरक्ति व मुक्ति मिल जाती है। जिन्हें योग साधना का ज्ञान है उनके लिए इस अवस्था स्वाभाविक है।
प्राणशक्ति के दिव्यिकरण के बाद इंद्र अथवा आलोकित मन (Luminous Mind) के रूपांतरण का उपक्रम होता है। पहले तीन मंत्रों में वायु के मूल- परिवर्तन के बाद इंद्र एवं वायु दोनों को आमंत्रण दिया जाता है। अर्थात अपनी ऊर्जाओं को रूपांतरित करने के बाद प्रदीप्त उज्जवल मन को आनंद अनुभव करने की अवस्था। जब तक ऋषि के प्राण और मन में आमूल- चूल परिवर्तन न आए, आगे योग साधना विफल होगी। एक बार इंद्र सोम या आनंद की अनुभूति कर लें तो उन्हें भी छोटे या हीन उपभोगों की ओर से आकर्षण छूट जाता है। चौथे से छठे मंत्रों में इसी साधना का विवरण है।
अंतिम तीन मंत्रों में मित्र और वरुण को निमंत्रण दिया जाता है। मित्र हैं प्रेम, सौहार्द व हर्ष के देव जो वेद के अनुसार योग में आनंद की नींव रखते हैं। उनके बिना भाव व संवेदनाओं में उलझनें व भ्रांतियां दूर नहीं होतीं। और वरुण हैं पवित्रता व बृहदता के देव जिनके बिना दोष व अपूर्णताओं की शुद्धि नहीं होती। इसीलिए वरुण सभी कमियां दूर कर शत्रुओं के आक्रमणों से मुक्त कराते हैं।
( अनुवाद व विवेचन श्री अरविन्द व कपालि शास्त्री के भाष्य व कश्यप के अनुवाद पर आधारित )