वेद में यज्ञ का अर्थ
यज्ञ वेद का मुख्य प्रतीक है। यदि हम यज्ञ को इस भाव से समझेंगे तो वेद का अर्थ भी स्वतः प्रकट हो जाता है।
ऋग्वेद कदाचित् मानवजाति का प्राचीनतम साहित्य हैं। समस्त भारत दर्शन, विश्व के धर्म व साहित्य उनसे अत्यंत प्रभावित हुए हैं किंतु उनका मूल अर्थ हम भारतीय ही भूल गए। यह आधारभूत अर्थ है उनका आध्यात्मिक ज्ञान व अनुभव, उनका मांत्रिक काव्य। इसी गहन बोध को आधुनिक काल में स्वामी दयानंद व उनके पश्चात श्री अरविंद ने पुनः उजागर किया। यहाँ हम उनके विवेचन व भाष्य से प्रेरित अनुवाद व विश्लेषण प्रकाशित कर रहे हैं।
१ अश्विन यज्ञ के आयोजक, पूर्ण रसानुभूति करने वाले देव, आनंद के स्वामी व तीव्रता से गतिमान, वे ऊर्जाओं को प्रेषित करने में हर्ष अनुभव करते हैं।
२ हे अश्विन! तुम बहु रूपिय कर्म के अधिष्ठाता, स्थिर व उज्ज्वल विज्ञान के संग, हे धारण करने वाले, हमारे शब्दों से उल्लास अनुभव करें!
३ हे कर्मों को पूर्ण करने वाले! शक्तिमान सोम प्रस्तुत है आपके लिए! हे तीव्र गति की शक्ति, स्थान उपयुक्त है अब आपके लिए। प्रचंड वेग से आगमन करें।
४ हे बहुआयामी प्रकाश के इंद्र! आप आगमन करें! यह सोम आपकी आकांक्षा करते हैं। और सूक्ष्म ऊर्जाओं के पवित्र सोम अब आगे तक बढ़ चुके हैं।
५ विचारों से वेगमान, आलोकित विचारकों द्वारा आवाहित, हमारी स्तुति पर आएँ, गीतकार, सोम परिमार्जित करने वाले, मैं आत्मविचार वाक् से उच्चारित करने का प्रयास करता हूँ।
६ हे इंद्र! तीव्रता से आगमन करें! अपने अश्वों पर हमारी स्तुति को, सोम का आनंद स्थिरता से धारण करें।
७ हे विश्वदेव! आगमन करें! आप प्रयास करने वालों का सम्बल, आप दायक द्वारा परिष्कृत सोम को यथायोग्य बाँटते हो।
८ हे विश्वदेव! जो जल से अर्चना करते हैं, शीघ्रता से सोम अर्पण करते हैं, जैसे गौ अपने विश्राम स्थल पर लौटती हैं।
९ हे विश्वदेव! जो कभी त्रुटि नहीं करते, हानि नहीं पहुँचाते, और अपने ज्ञान- रूपों में स्वच्छंदता से विचरण करते हैं, इस यज्ञ को धारण कर उसका आनंद लें।
१० पवित्र करने वाली सरस्वती, हमारे यज्ञ की अभीप्सा को निधियों के बाहुल्य व उल्लास की प्रचुरता, विचारों के तत्व से घनी।
११ शुभ मंगल सत्यों को प्रेषित करने वालीं, वे सरस्वती यज्ञ धारण करें।
१२ सरस्वती सत्य का विप्लव जगाती हैं, चित्त में प्रकट होने की संवेदना से। हमारे विचार पूर्णता से आलोकित करती हैं।
तीसरे सूक्त में विभिन्न दिव्य शक्तियों का आवाहन है। प्रथम तीन ऋक् अश्विन को आगमन का निमंत्रण हैं। अश्विन जो अश्व- भाँति ऊर्जा से भरे, प्राण को वेग से गतिमान करने वाले देव। अर्थात् प्राण में गति या ऊर्जा सोम के आनंद से भर दिव्य हो जाएँ।
दूसरे सूक्त में पहले वायु का आवाहन हुआ था। यहाँ अश्विन का। इस प्राण के रूपांतरण के बिना योग शिथिल व तामसिक रहता है और अग्नि में प्रकाश और तपस शक्ति नहीं बढ़ती।
अगले तीन मंत्रों में इंद्र को बुलावा जो आलोकित मन Luminous Mind हैं। प्राण के ऊर्जावान होने के बाद मन का परिवर्तन बहुत आवश्यक अगला चरण है। प्राण शुद्धि के बिना मन की पवित्रता या केंद्रित होना सम्भव नहीं। पतंजलि योग में भी इसीलिए शौच, यम, नियम आदि पर बल दिया जाता है। सोम केवल पवित्रता व अग्नि के तेज या योग की तपस्या से उत्पन्न होता है।
सातवें से नवें ऋक् विश्वदेव, जो सभी देवों की सम्मिलित शक्तियों का योग हैं, उनका आवाहन होता है। उनसे योग व यज्ञ साधक की क्षमता अनुसार विस्तृत हो जाते हैं। सभी दिव्य शक्तियों का एक हो जाना वैदिक विचार व पुराण में कई बार मिलता है। वे योगी जो ऐसा कर सकते हैं या इसका दर्शन कर सकते हैं वे अत्यंत विकसित व विभिन्न सिद्धियों से परिपूर्ण होते हैं।
और अंत में, सरस्वती जो प्रेरणा का स्रोत हैं, जो अतिमानसिक स्तरों में अवतरित हो इंद्र को उनके यज्ञ में सहायता देती हैं। और प्रेरणा की बाढ़ से इंद्र को सफल बनाती हैं।
Author, poet, philosopher and medical practitioner based in Florida, USA. Pariksith Singh is on the advisory board of Satyameva.
यज्ञ वेद का मुख्य प्रतीक है। यदि हम यज्ञ को इस भाव से समझेंगे तो वेद का अर्थ भी स्वतः प्रकट हो जाता है।
वेद महासागर हैं। सूक्ष्म व सघन ज्ञान के। और यह ज्ञान का सागर पूरी मानवजाति की विरासत है।
वैदिक प्रतीक साहित्य में विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये कल्पना या केवल काव्यात्मक आभूषण नहीं। वरन ये आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न रूपों का इंगन हैं।