• 21 Nov, 2024

वेद में यज्ञ का अर्थ

वेद में यज्ञ का अर्थ

यज्ञ वेद का मुख्य प्रतीक है। यदि हम यज्ञ को इस भाव से समझेंगे तो वेद का अर्थ भी स्वतः प्रकट हो जाता है।

यज्ञ वेद का मुख्य प्रतीक है। यह अस्तित्व की गहन समझ है जो हमारे पूर्वज ऋषियों ने सांकेतिक रूप में हमें दर्शाई। यह एक काव्यात्मक रहस्यमय यात्रा है जो मूल रूप से आध्यात्मिक है। यद्यपि इसे कई विवेचकों ने केवल रूढ़ि ही समझा, स्वामी दयानन्द श्री अरविन्द ने इसके तीन स्तर हमें दिखाए। ये स्तर हैं आधिभौतिक, आधिदैविक आध्यात्मिक।

यदि हम अग्नि को हमारे हृदय के भीतर जलती सतत दिव्य ज्वाला के रूप में देखें, तो यज्ञ का अर्थ बदल जाता है। अग्नि चित्त का ध्यान हैं तपस के देव हैं। स्वामी दयानंद ने इन्हें आत्मन परमात्मन का वाची कहा है, अर्थात ये केवल आत्मा परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं ये उनके सत्य की उद्घोषणा भी करते हैं। अग्नि यज्ञ के प्रथम देव हैं। इसीलिए उन्हें पुरोहित कहा गया है। पुरतः अर्थात वह जो आगे या अग्र भाग में हो, पूर्व में हो। अर्थात अग्नि यज्ञ में अग्र रूप हैं जो साधक या ऋषि का अर्पण स्वीकार करते हैं।

यज्ञ बली नहीं है। ना ही इससे भाव किसी प्रिय वस्तु का खोना है। बल्कि सब कुछ ईश्वरीय ज्योति में दान कर अपने निमित्त होने मात्र की स्वीकृति है। और यह दान ही सबसे बढ़ी प्राप्ति और पूर्णता है। और इसी धर्म में स्वयं का रूपांतरण है। स्वयं में जो भी विकृतियाँ हैं या असिद्धि है। उसे सत्य से युक्त कर उसका उत्थान है।

हमारी परंपरा में यज्ञ को कर्मकांड माना गया है। किन्तु यदि हम इसकी गहराई में उतरें तो हमारे सभी कर्म परमात्मा के द्वारा ही अनूदित होते हैं। यदि हम कर्ता भाव त्याग कर जीवन को यज्ञ का निरूपण मान लें तो कभी कर्म वास्तव में योग में परिवर्तित हो जाते हैं।

यज्ञ का निरुक्त देखें तो ज्ञात होगा कि इसके मूल अक्षर हैं , ज्, व, ञ। से भाव उठता है नियंत्रण का, स्वामित्व का, जैसे यम, यंत्र, आदि। से भावार्थ है शक्ति रचना का जैसे जन्म, जनन, आदि। और अंत में या ध्वनि से अर्थ है वहन करना जैसे नयति, नति, आदि।

यज्ञ से फिर अर्थ हुआ वे जो अधिष्ठ हैं। अध्यक्ष हैं। इसीलिए श्री अरविन्द ने कहा है कि यज्ञ द्योतक हैं विष्णु, शिव, योग, धर्म के।

किरीत जोशी कहते हैं कि यज्ञ आत्म समर्पण की क्रिया है। जिसमें अहम् का निषेध अंत हो जाता है। और वैदिक देव इस यज्ञ में एक सत्य के विभिन्न रूप हैं।

यज्ञ तपस्या हैं। साधना हैं। आराधना, शुद्धिकरण हैं। जिसमें अग्नि हृदय के इष्ट देव हैं, जो ईश्वर की अंश हैं। वे ही जीवात्मन हैं। हृदि पुरुष चैत्य पुरुष हैं। वे ही चैत्य पुरूष (Psychic Being) हैं। यज्ञ का लक्ष्य फिर हुआ उस अग्नि को सशक्त करना, उसे और बढ़ाना और जीवन को यज्ञ में बदल देना।    

हृदय के भीतर स्थित आत्मन को सर्वव्यापी परमात्मन का अंश समझना और उनमें एकत्व देखना भक्ति ईश्वर से प्रेम का मूल सिद्धांत है। और भारत के इतिहास में वैष्णव शैव भक्ति के पंथ इसी दर्शन की उपज हैं। राधा श्रीकृष्ण के अनंत प्रेम में भी इसी अनन्य एकात्म की पूर्ति मानी जा सकती है।

यदि हम यज्ञ को इस भाव से समझेंगे तो वेद का अर्थ भी स्वतः प्रकट हो जाता है। और यज्ञ और योग में कोई अंतर नहीं, यह भी स्पष्ट हो जाता है।

Pariksith Singh MD

Author, poet, philosopher and medical practitioner based in Florida, USA. Pariksith Singh has been deeply engaged, spiritually and intellectually, with Sri Aurobindo and his Yoga for almost all his adult life, and is the author of 'Sri Aurobindo and the Literary Renaissance of India', 'Sri Aurobindo and Philosophy', and 'The Veda Made Simple'.

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